'अच्छे दिन' का पता नहीं, शिक्षा जगत के 'खराब दिन' शायद आ गए हैं!

जनता के अच्छे दिन तो आएंगे तब आएंगे लेकिन अभी तो लगता है कि, देश के शिक्षा जगत के खराब दिन आने वाले हैं. खराब दिन इसलिए कि, भारत जो एक जमाने में विश्व गुरु कहलाता था, भारत जिसने दुनिया को हर काल में ज्ञान दिया, फिर चाहे वह प्राचीन काल हो
या मध्य काल. वेदव्यास, वाल्मीकि और आर्यभट्ट से लेकर चरक और चाणक्य तक. कालिदास को कोई कैसे भूल सकता है या फिर नालंदा और तक्षशिला किसी भी समझदार भारतीय के जेहन से कैसे उतर सकती हैं?


पिछले 100-200 सालों की बात करें तो स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, रविन्द्र नाथ टैगोर या फिर जगदीश चन्द्र बसु, सीवी रमन, एस रामानुजन, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, डॉ. एस राधाकृष्णन या फिर एपीजे अब्दुल कलाम. लिस्ट बनाने लगेंगे तो बनाती ही चले जाएगी.

ये वे लोग हैं जिन्होंने साहित्य से लेकर अध्यात्म, गणित से लेकर विज्ञान, चिकित्सा से लेकर अर्थशास्त्र और दर्शन से लेकर अंतरिक्ष तक में भारत का नाम रोशन किया.

सवाल यह है कि, इतनी समृद्ध विरासत के बाद भारत की सरकार को, भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र का पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए विदेशी विशेषज्ञों की जरूरत क्यों पड़ी? और वह भी उस सरकार को जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात करती है, भारत को भारतीयता के सहारे विश्व पटल पर सबसे ऊपर ले जाना चाहती है!
"हमारे बच्चे कॉलेज और विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ेंगे, यह विदेशी विशेषज्ञ और विश्वविद्यालय तय करेंगे"

बेशक, वैश्वीकरण के दौर में खुलापन जरूरी है. निश्चित रूप से हम कूपमण्डूक नहीं रह सकते? हमें ज्ञान के लिए अपने दिमाग ही नहीं, देश के खिड़की दरवाजे भी खुले रखने पड़ेंगे! हमें नवीनतम तकनीक भी चाहिए और विशेषज्ञता भी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि, हमारे बच्चे कॉलेज और विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ेंगे, यह विदेशी विशेषज्ञ और विश्वविद्यालय तय करेंगे?

क्या भारतीय धरा अब 'ज्ञान विहीन' हो गई है? क्या भारतीय शिक्षा जगत की जरूरतों को, 'भारतीय गुरुओं ' से ज्यादा विदेशी गुरु खोज पाएंगे? विदेशियों का अपना मन, मस्तिष्क और शरीर है? हमारा अपना मन, मस्तिष्क और शरीर है. दोनों में समानता कहां है? फिर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी उनमें समानता लाने की कोशिश क्यों कर रही हैं?

व्यक्तित्व विकास तो पहले ही हमारा शिक्षा से बाहर हो चुका, क्या अब सरकार को उसमें भारतीय संस्कृति की भी जरूरत नहीं है! शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण करने से पहले हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या हमने उसका राष्ट्रीयकरण किया है? यह भी सोचें कि विदेशी पैटर्न पर जाते ही हमारी शिक्षा भारतीय छात्रों को भारत से कितना दूर ले जाएगी? क्या वह इतनी महंगी नहीं हो जाएगी कि, आम विद्यार्थी उसे ले ही नहीं सकेगा? क्या इसमें देश में असमानता नहीं बढ़ेगी? क्या इससे आया फ्लॉप पैटर्न भारत को भी फ्लॉप नहीं करेगा?

सात विदेशी विश्वविद्यालयों से भारतीय उच्च शिक्षा जगत का पाठ्यक्रम तय कराने में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करने से पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भारतीय शिक्षाविदों और विषय विशेषज्ञों को साथ बिठाना चाहिए. नया जो भी पाठ्यक्रम तय करना है, उनसे सलाह-मशविरा करके तय करना चाहिए. यह ध्यान रखना चाहिए कि, हमारे अपने पाठ्यक्रम से पढ़-पढ़ कर निकली प्रतिभाएं ही आज आधे 'नासा और सिलीकॉन वैली' पर कब्जा जमाए बैठी हैं.

और अन्त में, सरकार को 'घर का जोगी जोगणा, आन गांव का सिद्ध' की नीति से दूर रहना चाहिए. हमारे जोगी, सिद्ध भी हैं और उन्हीं को बढ़ाना चाहिए.
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