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हमारे शिक्षा मंत्री बेशर्मी की हद कर दी है , अपनी ही सरकार कटघरे में खड़ा कर रहे है.

हमारे शिक्षा मंत्री बेशर्मी की हद कर दी है।
कह रहे है इस बार कदाचार नहीं हुआ इस लिए ३७ % छात्र उत्तीर्ण हुए है, इस का मतलब ये हुआ की २०१२ में ९०% , बर्ष २०१३ में ८८ % और बर्ष २०१५ में ८७ % रिजल्ट फेक है और अगर ये फेक है और उस के जिम्मेवार किसे मानते है ? अपनी ही सरकार कटघरे में खड़ा कर रहे है.

दूसरी ओर शिक्षक और सरकार भी नई-नई तरकीबें इजाद करती रही है। २००१ -२००२ में, शिक्षकों की भर्ती में विद्यालयों में ब्यापक धांधली बरती गयी. फ़र्ज़ी शिक्षकों से पढाई की गुणवत्ता में जबरदस्त गिरावट आयी ?
२०१५ में दौर आया व्यापक कदाचार का। इसकी तस्वीरें मीडिया में आईं। इसके बाद इस पर रोक लगाने की कोशिश शुरू हुई। इस बीच सरकारी नियुक्ति की पूरी पद्धति छिन्न-भिन्न हो गई।
इस बीच शिक्षक आंदोलन भी हुए। सरकार ने शिक्षक आंदोलन के प्रति कड़ा रुख अपनाया और उन्हें दमन का शिकार होना पड़ा। शिक्षकों पर लाठियां भी चलीं। रिक्तियां बढ़ रही हैं और औसत वेतन घट रहा है। यह विरोधाभास भी शिक्षा की बदहाली का खास कारण है।
पहले हर जिले में ऐसे माध्यमिक, उच्चतर विद्यालय थे, जिनकी प्रतिष्ठा थी, पर आज वहां भी छात्रों की उपस्थित नगण्य है। इस तरह अगर एक कारण है शिक्षक का होना, तो दूसरा कारण है शिक्षा का स्तर गिरना। बिहार राज्य में प्रारंभिक से डिग्री कॉलेजो तक कुल ४ लाख शिक्षकों की कमी है,सुविधाओं का घोर आभाव है । पुस्तकालय और प्रयोगशालाएं नहीं हैं। छात्र कैसे पढ़ाई करें?
इसीलिए परीक्षाफल अगर इतना खराब हुआ है और खासकर विज्ञान संकाय में तो उसका कारण समझा जा सकता है। बिना प्रयोगशाला, बिना शिक्षक के छात्र कैसे विज्ञान पढ़ेंगे? इसमें सिर्फ 30 फीसदी छात्र उत्तीर्ण हुए।
ये पूरी व्यवस्था की कमजोरी है, कि छात्र-छात्राओं की क्षमता में कोई अभाव है। नीति-निर्माता, प्रशासक, शासन और कुछ हद तक शिक्षक भी जवाबदेह हैं।
भले ही कुछ कृत्रिम तरकीबों से नितीश सरकार थोड़े समय के लिए कुछ सुधार हो जाए, पर इस बार तो वे तरकीबें भी उलझ गईं। फंस गईं। किन्हीं तरकीबों से नहीं, बल्कि बिहार की शिक्षा में मौलिक सुधार की जरूरत है।

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