जो आज नितीश और सभी संघ मिलकर Untrained के साथ कर रहे हैं उसी पर एक टिप्पणी....
शासक वर्गों की हमेशा कोशिश रही है कि खुद को प्रतिभाशाली, परिश्रमी, दृढ़प्रतिज्ञ तथा समाज के वंचित तबकों को जन्म और वंशागत चरित्र से कमतर, जरायमपेशा, काहिल, कामचोर, भिखारी, आदि सिद्ध किया जाये और इसे ही वर्ग विभाजन का मूल कारण बताया जाये|
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने तो बाक़ायदा कुछ जातियों को ही अपराधी जाति घोषित किया था| इस वजह से इन्हें कोई शिक्षा पाने, कोई पेशा अपनाने का मौका प्राप्त ही नहीं होता था तो वास्तव में ही जीवन निर्वाह के लिए इनके सामने अपराध का ही एक रास्ता बचता था|
शासकों के टुकड़ों पर पलने वाले कुछ 'तर्कशील', 'वैज्ञानिक' कहलाने वालों ने लगातार इसे कुछ तार्किक, वैज्ञानिक जामा पहनाने की भी कोशिश की है| 20वीं सदी में इस विचार के सबसे बड़े हिमायती नाजी फासीवादी थे| लेकिन आधुनिक जनतांत्रिक चिंतनधारा ने राजनीति, कानून, साहित्य और विज्ञान हर क्षेत्र में इसे कुतार्किक ही नहीं बल्कि मानवद्रोही सिद्ध करते हुए इसका प्रतिरोध किया|
लेकिन अब 21वीं सदी में फिर से physiognomy अर्थात मुखाकृति 'विज्ञान' अर्थात चेहरा-मोहरा देखकर चरित्र जान लेने का फ़र्जी विज्ञान में 'शोध' किया जा रहा है और इसे कुछ देशों की सरकारों और निजी पूँजी की भी मदद मिल रही है| इन लोगों का कहना है कि पहले से सजायाफ्ता अपराधियों के फोटो या नाक-नक़्श की गणितीय विधि (algorithm) द्वारा अध्ययन से कंप्यूटर को व्यक्ति के फोटो के आधार पर उसके चरित्र को तय करना सिखाया जा सकता है (machine learning)! फिर तो कमाल ही हो जायेगा! पुलिस-अदालत को जाँच, सबूत, गवाही की क्या जरूरत? बस कैमरे के सामने बिठाओ और कंप्यूटर बता देगा, यह आदमी अपराधी है या भविष्य में बनेगा! बस करो बंद; ज्यादा खतरनाक हो तो अभी सफाया कर दो; झंझट ख़त्म! कुछ-कुछ 'माइनॉरिटी रिपोर्ट' नाम की फिल्म जैसा!
अब भारत हो या विकसित अमेरिका, जेलें किन सजायाफ्ता अपराधियों से भरी पड़ी हैं? नस्ली, क्षेत्रीय, जातिगत आधार पर वंचित समुदायों से ये जेलें भरी पड़ीं हैं क्योंकि आर्थिक-सामाजिक वजहों से शासक तबकों के अपराधी तो भयंकर जुर्म में भी सजा नहीं पाते और वंचित तबके के लोग न सिर्फ छोटे-मोटे जुर्मों में बल्कि बगैर जुर्म के भी सजा पा जाते हैं| अब ये फ़र्जी 'वैज्ञानिक' कंप्यूटर को इनके चेहरे के नाक-नक्श को अपराधी पहचानने का प्रोग्राम देंगे तो इसी पृष्ठभूमि वाले लोग अपराधी ठहराये जायेंगे|
अमेरिका के कई राज्य पहले ही ऐसी तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं जिसमें पुलिस कुछ खास इलाकों में गश्त करती है, कुछ खास किस्म के लोगों से पूछताछ और तलाशी लेती है तो स्वाभाविक ही वही ज्यादा गिरफ्तार होते हैं और कंप्यूटर का प्रोग्राम इनके अध्ययन से और भी पक्का होता जाता है| अब साम्राज्यवाद में अमेरिका का नया प्रतिद्वंद्वी चीन भी ऐसी शोध करवा रहा है| इज़रायली जियनवादी तो फिलिस्तीनियों को अपराधी सिद्ध करना ही चाहते हैं, वहाँ की एक कम्पनी Faception तो बाकायदा चेहरे से आतंकवादी या बलात्कारी पहचानने का software बेच रही है| भारत में तो पुलिस और अदालती व्यवस्था पहले से बहुत गहराई तक ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है| ऐसे फ़र्जी 'वैज्ञानिक' विचार का यहाँ तो स्वागत होने ही वाला है, कई समुदायों को तुरंत 'नीच', हीन', 'कमीन' सिद्ध कर दिया जायेगा!
आश्चर्य यही है कि आज भी कुछ लोग पूँजीवादी 'जनतंत्र' से उम्मीदें लगाये बैठे हैं कि वह समाज में जड़ जमाये बैठे प्रतिगामी, अंधता पूर्ण, सामंती विचारों के अवशेषों से संघर्ष कर समानता और मानवता का झंडा उठाएगा; पर उन्हें नाउम्मीदी ही हासिल होने वाली है क्योंकि यह अपना प्रगतिशील चरित्र तो पहले ही खो चुका था, अब तो उसका मुखौटा भी उतार चुका है और इसका नग्न, मानवद्रोही,विकराल रूप सामने आ रहा है जो, अगर इसे नष्ट न किया गया तो, समाज को बर्बरता की और ही ले जायेगा|
शासक वर्गों की हमेशा कोशिश रही है कि खुद को प्रतिभाशाली, परिश्रमी, दृढ़प्रतिज्ञ तथा समाज के वंचित तबकों को जन्म और वंशागत चरित्र से कमतर, जरायमपेशा, काहिल, कामचोर, भिखारी, आदि सिद्ध किया जाये और इसे ही वर्ग विभाजन का मूल कारण बताया जाये|
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने तो बाक़ायदा कुछ जातियों को ही अपराधी जाति घोषित किया था| इस वजह से इन्हें कोई शिक्षा पाने, कोई पेशा अपनाने का मौका प्राप्त ही नहीं होता था तो वास्तव में ही जीवन निर्वाह के लिए इनके सामने अपराध का ही एक रास्ता बचता था|
शासकों के टुकड़ों पर पलने वाले कुछ 'तर्कशील', 'वैज्ञानिक' कहलाने वालों ने लगातार इसे कुछ तार्किक, वैज्ञानिक जामा पहनाने की भी कोशिश की है| 20वीं सदी में इस विचार के सबसे बड़े हिमायती नाजी फासीवादी थे| लेकिन आधुनिक जनतांत्रिक चिंतनधारा ने राजनीति, कानून, साहित्य और विज्ञान हर क्षेत्र में इसे कुतार्किक ही नहीं बल्कि मानवद्रोही सिद्ध करते हुए इसका प्रतिरोध किया|
लेकिन अब 21वीं सदी में फिर से physiognomy अर्थात मुखाकृति 'विज्ञान' अर्थात चेहरा-मोहरा देखकर चरित्र जान लेने का फ़र्जी विज्ञान में 'शोध' किया जा रहा है और इसे कुछ देशों की सरकारों और निजी पूँजी की भी मदद मिल रही है| इन लोगों का कहना है कि पहले से सजायाफ्ता अपराधियों के फोटो या नाक-नक़्श की गणितीय विधि (algorithm) द्वारा अध्ययन से कंप्यूटर को व्यक्ति के फोटो के आधार पर उसके चरित्र को तय करना सिखाया जा सकता है (machine learning)! फिर तो कमाल ही हो जायेगा! पुलिस-अदालत को जाँच, सबूत, गवाही की क्या जरूरत? बस कैमरे के सामने बिठाओ और कंप्यूटर बता देगा, यह आदमी अपराधी है या भविष्य में बनेगा! बस करो बंद; ज्यादा खतरनाक हो तो अभी सफाया कर दो; झंझट ख़त्म! कुछ-कुछ 'माइनॉरिटी रिपोर्ट' नाम की फिल्म जैसा!
अब भारत हो या विकसित अमेरिका, जेलें किन सजायाफ्ता अपराधियों से भरी पड़ी हैं? नस्ली, क्षेत्रीय, जातिगत आधार पर वंचित समुदायों से ये जेलें भरी पड़ीं हैं क्योंकि आर्थिक-सामाजिक वजहों से शासक तबकों के अपराधी तो भयंकर जुर्म में भी सजा नहीं पाते और वंचित तबके के लोग न सिर्फ छोटे-मोटे जुर्मों में बल्कि बगैर जुर्म के भी सजा पा जाते हैं| अब ये फ़र्जी 'वैज्ञानिक' कंप्यूटर को इनके चेहरे के नाक-नक्श को अपराधी पहचानने का प्रोग्राम देंगे तो इसी पृष्ठभूमि वाले लोग अपराधी ठहराये जायेंगे|
अमेरिका के कई राज्य पहले ही ऐसी तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं जिसमें पुलिस कुछ खास इलाकों में गश्त करती है, कुछ खास किस्म के लोगों से पूछताछ और तलाशी लेती है तो स्वाभाविक ही वही ज्यादा गिरफ्तार होते हैं और कंप्यूटर का प्रोग्राम इनके अध्ययन से और भी पक्का होता जाता है| अब साम्राज्यवाद में अमेरिका का नया प्रतिद्वंद्वी चीन भी ऐसी शोध करवा रहा है| इज़रायली जियनवादी तो फिलिस्तीनियों को अपराधी सिद्ध करना ही चाहते हैं, वहाँ की एक कम्पनी Faception तो बाकायदा चेहरे से आतंकवादी या बलात्कारी पहचानने का software बेच रही है| भारत में तो पुलिस और अदालती व्यवस्था पहले से बहुत गहराई तक ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है| ऐसे फ़र्जी 'वैज्ञानिक' विचार का यहाँ तो स्वागत होने ही वाला है, कई समुदायों को तुरंत 'नीच', हीन', 'कमीन' सिद्ध कर दिया जायेगा!
आश्चर्य यही है कि आज भी कुछ लोग पूँजीवादी 'जनतंत्र' से उम्मीदें लगाये बैठे हैं कि वह समाज में जड़ जमाये बैठे प्रतिगामी, अंधता पूर्ण, सामंती विचारों के अवशेषों से संघर्ष कर समानता और मानवता का झंडा उठाएगा; पर उन्हें नाउम्मीदी ही हासिल होने वाली है क्योंकि यह अपना प्रगतिशील चरित्र तो पहले ही खो चुका था, अब तो उसका मुखौटा भी उतार चुका है और इसका नग्न, मानवद्रोही,विकराल रूप सामने आ रहा है जो, अगर इसे नष्ट न किया गया तो, समाज को बर्बरता की और ही ले जायेगा|