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कितना दम है सरकारी नौकरी के चुनावी वादे में?

 बिहार के विधानसभा चुनाव में इस बार नौकरियों और रोजगार का मुद्दा छाया हुआ है. आरजेडी के दस लाख सरकारी नौकरियों के वादे को खूब प्रचार मिल रहा है और बीजेपी को भी इसके जवाब में अगले पांच साल में चार लाख नौकरियों और 15 लाख रोजगार का वादा करना पड़ा है. लेकिन नौकरियों के इन वादों की हकीकत क्या है? क्या वाकई किसी सरकार के लिए इतने बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरियां दे पाना संभव है? 


बिहार में इस समय राज्य सरकार के 3.44 लाख कर्मचारी हैं. बिहार सरकार इनके वेतन पर 26423 करोड़ रुपए खर्च कर रही है. इनके अलावा बिहार सरकार पंचायत-शहरी निकाय के शिक्षकों, रसोइयों, विश्वविद्यालय के कर्मियों और सभी प्रकार के संविदाकर्मियों पर वेतन मद में 26314 करोड़ रुपए खर्च करती है. इस तरह केवल वेतन पर बिहार सरकार का खर्च 52734 करोड़ रुपए प्रति वर्ष है. राज्य में जबकि 3.80 लाख पेंशनभोगी हैं जिनकी पेंशन पर सरकार 20468 करोड़ रुपए खर्च करती है. यानी दोनों मिला कर बिहार सरकार हर साल वेतन और पेंशन पर 73202 करोड़ रुपए खर्च कर रही है. बिहार का बजट 2.11 लाख करोड़ रुपए का है. इसका अर्थ है कि बिहार सरकार फिलहाल अपने बजट का करीब 34 प्रतिशत वेतन और पेंशन पर खर्च कर रही है.  

अब आते हैं आरजेडी के चुनाव वादे पर. आरजेडी के घोषणापत्र में दस लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया गया है. यह कहा गया है कि पहली ही कैबिनेट बैठक में इन नियुक्तियों को मंजूरी दे जाएगी. तेजस्वी यादव के मुताबिक बिहार में अभी करीब साढ़े चार लाख पद खाली हैं जिन्हें भरा जाएगा. जबकि नीति आयोग मानता है कि बिहार की तरक्की के लिए 5.5 लाख पद और सृजित किए जाने चाहिएं. इन्हें मिला कर कुल दस लाख नौकरियां देने की बात आरजेडी कर रही है. 

अब अगर मान लिया जाए कि महागठबंधन की सरकार बनते ही दस लाख सरकारी नौकरियों को मंजूरी दे दी जाती है. तो इसके लिए बजट में कितना प्रावधान करना होगा? हिसाब लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है. अगर 3.44 लाख कर्मचारियों के वेतन पर 26423 करोड़ रुपए खर्च हो रहा है तो दस लाख नई नौकरियों पर कितना खर्च होगा. यह करीब 58 हजार करोड़ रुपए वार्षिक होगा.  

अगर इसे वेतन और पेंशन के साथ मिला दिया जाए तो यह रकम बढ़ कर 1.31 लाख करोड़ रुपए पहुंच जाएगी जो बिहार के मौजूदा बजट के आधे से भी अधिक होगा. जाहिर है ऐसा कोई भी सरकार नहीं कर सकती है कि वह अपने बजट का आधा पैसा केवल वेतन और पेंशन पर खर्च कर दे. क्योंकि उसे तमाम कल्याणकारी योजनाओं, आधारभूत ढांचे और जनउपयोगी अन्य कार्यों पर पैसा खर्च करना होता है.  

यहां यह बताना जरूरी है कि चुनावी वादों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार कभी राज्यों की मदद के लिए आगे नहीं आती और इसके लिए जरूरी संसाधन राज्यों को स्वयं ही जुटाने पड़ते हैं. किसानों की कर्ज माफी या मुफ्त बिजली के चुनावी वादों को पूरा करने में कई पार्टियों को पसीना आ गया और वे इन्हें आधा-अधूरा ही लागू कर सकी हैं.  

ऐसा ही कुछ हाल बीजेपी के चुनावी वादों का है जिसने अगले पांच साल में दो लाख शिक्षकों की नियुक्ति की बात की है. खुद उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी जिनके पास वित्त मंत्रालय भी है, कह चुके हैं कि ढाई लाख स्कूल शिक्षकों या पचास हजार कॉलेज शिक्षकों की नियुक्ति पर करीब 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा. इसी तरह बीजेपी स्वास्थ्य क्षेत्र में दो लाख नौकरियां देने की बात कर रही है. जिस पर भी अंदाजन 20 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे. इस तरह बीजेपी का वादा भी चार लाख सरकारी नौकरियां देने का है. लेकिन आरजेडी के दस लाख नौकरियों के वादे पर सवाल उठाते समय बीजेपी यह भूल जाती है कि पांच साल में चार लाख नौकरियों के उसके वादे को पूरा करने में भी करीब चालीस हजार करोड़ रुपए का बोझ आएगा और यह पैसा कहां से आएगा इसका कोई रोड मैप नहीं दिया गया है.  

सरकारी नौकरी की चाहत आज भी लोगों में बरकरार है. राजनीतिक दल इसी का फायदा उठाना चाहते हैं. लेकिन चाहे दस लाख नौकरी की बात हो या फिर चार लाख नौकरियों की, इन चुनावी वादों को हकीकत की कसौ:टी पर कसना बेहद जरूरी है ताकि मतदाता गुमराह न हों. पर यह जरूर है कि इस बार बिहार चुनाव में नौकरी और रोजगार एक बड़ा मुद्दा बन गया है.

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