बिहार के
शैक्षिक जगत में माफिया शब्द 1982 के बाद बाकायदा खुलेआम हुआ। राज्य सरकार
ने अक्टूबर 1982 में वित्त रहित शिक्षा नीति लागू की। इस नीति के बाद जिसे
मन किया, वह कॉलेज या स्कूल खोलने का हकदार हो गया। इसे खोलने की होड़ मच
गई।
यही वह समय था, जब बिहार में शिक्षा ने कारोबार का रूप धरना शुरू किया, जिसका वीभत्स स्वरूप सामने है।
इस नीति के बाद तमाम सक्षम लोग, जिसमें नेताओं की भी तादाद थी, स्कूल-कॉलेज की तरफ मुखातिब हुए। ऐसे-ऐसे लोग शिक्षक, कर्मचारी बहाल हुए, जो किसी को भी चौंका दें। लायक योग्यता नहीं लेकिन लेक्चरर, प्रोफेसर। कॉलेज का मालिक शासी निकाय हुआ और अधिकांश कारिंदे वही, जो इस निकाय के सदस्यों के या तो सगे-संबंधी थे या रुपये के बूते उनको संतुष्ट किए थे। थोक भाव में नाम जुड़ा, काटा गया। खासकर चतुर्थ चरण में अंगीभूत हुए कॉलेजों की जांच का तो विश्व रिकॉर्ड बना। रिकॉर्ड संख्या में कॉलेज, विश्वविद्यालय, सरकार के स्तरों से जांच। थोक भाव में कमेटियां। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे अलावा। शासी निकाय के कारनामों के खिलाफ उन शिक्षक, कर्मचारियों का बड़ा लंबा आंदोलन चला, जो अपने या अपनी योग्यता के बूते यहां नियुक्त हुए थे। यह वस्तुत: शिक्षा माफिया के खिलाफ आंदोलन रहा। आंदोलनकारी थक गए। चुप रह गए। अब तो एक ही कैंपस में कई-कई तरह के कॉलेज चलने लगे हैं। उनको छात्र भी खूब मिल रहे हैं।
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