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सत्ता की सियासत से गर्त में जा रही शिक्षा

बांका। राष्ट्रीय जीवन की समग्रता में शिक्षा की महत्ता युगों युगों से प्रमाणिक और सर्व स्वीकार्य रही है। शिक्षा के इस विशाल रथ को शिक्षक खींचते हैं। पर राजनीति के बदलते रंग में शिक्षा हाशिये पर चली गई है।
सत्ता की सियासत से शिक्षा गर्त में जा रही है। छात्र के नामांकन से लेकर शिक्षकों की बहाली में सियासत साधा जाता है। पहले इसके मूल में शिक्षा होती थी, बाद में सियासत। पर अब सत्ता इसमें केवल वोट खोजती है। जिससे समाज में ना शिक्षक का वजूद बचा ना सरकारी संस्थानों में छात्रों का वजूद ¨जदा बचा है।
उक्त बातें राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित शिक्षक सुबोध नारायण ¨सह ने शिक्षक दिवस पर 'दैनिक जागरण' से विशेष बातचीत में कही। विद्वान शिक्षक और प्रखर वक्ता के रूप में प्रसिद्ध रहे सुबोध बाबू उच्च विद्यालय मोहनपुर से सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक हैं। उनकी प्रशासनिक कुशलता का जिक्र आज भी लोग करते हैं। वे कहते हैं कि आजादी के बाद समाज ने शिक्षा को ज्यादा महत्व दिया था। खासकर पिछले डेढ़ दो दशक से बिहार में इसकी स्थिति बेहद खराब हुई। अब सुप्रीम कोर्ट भी उनकी योग्यता को प्रमाणिक मान चुकी है। तब एक एमए, बीएड, पीएचईडी डिग्री वाले शिक्षक को चपरासी से कम वेतन क्यों दिया जा रहा है। सत्ता शिक्षक की महत्ता चपरासी से कम आंक रही है तो विद्यालय में उनकी मनोदशा क्या हो सकती है, इसे समझा जा सकता है।

इस मुद्दे पर आरएमके इंटर स्कूल के पूर्व प्रधानाध्यापक नित्यानंद ¨सह कहते हैं कि पहले शिक्षक काम केवल पढ़ाना था। सबकुछ होता था, पर पढ़ाई सबसे आगे थी। विद्यालय में पढ़ाई कमजोर हुई तो समाज का सारा तानाबाना बिगड़ने लगा है। पढ़ाई बिगाड़ने में सरकार से लेकर समाज सब दोषी है। इसलिए आज सरकारी स्कूलों में प्रतिभा कम हो रही है। अनुशासन बच्चों की कौन पूछे शिक्षकों के लिए भी मुश्किल है। नित्या बाबू के वक्त आरएमके की प्रशासनिक व्यवस्था राज्य के टॉप स्कूलों में गिनी जाती थी। 1983 में ही सेवानिवृति के बाद वे अपने गांव अमरपुर कठेल में ¨जदगी के अंतिम पड़ाव पर हैं। उनके छात्र तब के आरएमके को याद कर ही गदगद हो जाते हैं।
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सम्मान को भी दस साल से नहीं गया नाम

शिक्षक दिवस पर राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शिक्षकों का सम्मान होता है। पर बांका से पिछले दस साल से किसी शिक्षक का नाम शिक्षा विभाग ने सम्मान के लिए नहीं भेजा है। हर बार शिक्षक दिवस के एक दिन पहले जारी होने वाली सूची में लोग बांका के किसी शिक्षक का नाम इसमें खोजते हैं तो उसे निराशा ही हाथ लगती है।

डीईओ अनिल कुमार शर्मा ने बताया कि इसके लिए शिक्षक का ही आवेदन आता है। इसके बाद उसे मापदंड के मुताबिक सम्मान के लिए भेजा जाता है। पर बांका में हाल के वर्षों में सम्मान के लिए किसी शिक्षक का नाम नहीं आया है। मालूम हो कि पिछले साल बांका के शिक्षकों ने उन्नयन अभियान को राष्ट्रीय के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने का काम किया था।

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