भागलपुर [किशोर झा]। दिल्ली के पूर्व कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर के फर्जी प्रमाण पत्र तथा फर्जी प्रमाण पत्रों के बल पर बड़ी संख्या में नियोजित शिक्षकों की सालों से चल रही नौकरी ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को शर्मसार किया है।
दूसरे प्रदेशों में पहले से ही बिहार की शिक्षा व्यवस्था व प्रमाण पत्रों को अधिक सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। ऐसी घटनाएं उसकी साख को और ज्यादा प्रभावित करेगी। इस स्थिति के लिए सिर्फ प्रमाण पत्र हासिल करने वालों को ही दोषी नहीं कहा जा सकता है।
सरकार, राजनेता और अधिकारी भी इसके लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। किसी भी स्तर पर इसमें सुधार का ठोस प्रयास तक नजर नहीं आता है। कुछ छिटपुट तरीके से किसी ने कोशिश की भी तो विरोध करने वालों की फौज खड़ी हो जाती है।
तोमर प्रकरण की जांच के दौरान दिल्ली पुलिस को जैसी कुव्यवस्था का सामना करना पड़ा, उसमें कोई भी यह आरोप आसानी से लगा सकता है कि यहां से डिग्री खरीदना काफी आसान है। अभी भी जैसी स्थिति है, उससे किसी बड़े सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। फर्जी शिक्षक, फर्जी डॉक्टर, फर्जी परीक्षा एवं फर्जी मूल्यांकन प्रदेश पर बदनुमा दाग बन गया है।
सरकारी तंत्र का भी अनुमान है कि हजारों नियोजित शिक्षकों की डिग्री फर्जी है। इनमें से 1400 ने तो हाई कोर्ट के कड़े रुख को देखकर खुद इस्तीफा भी दे दिया है। ये सालों से कथित रूप से पढ़ा रहे थे। क्या और कैसे पढ़ा रहे होंगे, समझा जा सकता है।
यदि शिक्षा का मतलब सिर्फ प्रमाण पत्र हासिल करना है तो कुछ हद तक ऐसी व्यवस्था पर चुप्पी साधी जा सकती है लेकिन यदि शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करना और बेहतर करियर बनाना लक्ष्य हो तो मौजूदा स्थिति को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
बोर्ड परीक्षा के दौरान सहरसा में सामूहिक नकल, मूल्यांकन के दौरान विषय के व्याख्याताओं में स्कूल स्तर की भी जानकारी न होना, कुकरमुत्तों की तरह उग आए प्रमाण पत्रों का धंधा करने वाले शिक्षण संस्थान, नौकरी के नाम पर वोट की राजनीति करते हुए बड़े पैमाने पर अयोग्य शिक्षकों की बहाली जैसी घटनाएं प्रदेश के लिए नई नहीं है। रही-सही कसर तोमर प्रकरण और हजारों की संख्या में फर्जी प्रमाण पत्रों के सहारे नियुक्त शिक्षकों के खुलासे न कर दिया है।
यह विचारणीय मसला है कि क्या कोई भी नियोक्ता ऐसे इलाके से प्रमाण पत्र लेकर आने वाले आवेदकों को सम्मान देगा? जहां विश्वसनीय प्रमाण पत्रों के साथ बेरोजगारों की फौज खड़ी हो, वहां कोई भी क्यों जोखिम उठाएगा? पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली जैसी जगह के लिए चल रही खचाखच भरी जनसेवा और जनसाधारण एक्सप्रेस ट्रेनें इस बात का प्रमाण है कि यहां से बाहर जाने वालों से सबसे ज्यादा संख्या मजदूरों की ही होती है।
क्या यह शर्मनाक नहीं है कि बिहार से ही सबसे ज्यादा जनसेवा व जनसाधारण एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें चलाई जा रही हैं। यहां के लिए पटना राजधानी (जिसमें अधिकतर प्रदेश के राजनेता और सरकारी अधिकारी सफर करते हैं) को छोड़कर एक भी स्तरीय ट्रेन तक नहीं है, जबकि पिछले दो दशक से भी कम समय में यहां के तीन रेल मंत्री रह चुके हैं।
अर्थात प्रदेश सरकार के साथ ही रेलवे भी मानता है कि यहां सबसे बड़ी संख्या मजदूरों व गरीबों की ही है। सच भी यहीं है कि बेहतर नौकरी पाने वालों में अधिकतर वही युवा होते हैं जो दूसरे प्रदेशों में जाकर शिक्षा ग्रहण करते हैं और बाहर ही नौकरी हासिल कर वहीं स्थायी रूप से बसने का प्रयास भी करते हैं।
गौरवशाली अतीत वाले बिहार में कभी भी प्रतिभा की कमी नहीं रही लेकिन साख का संकट, भ्रष्ट शिक्षा व्यवस्था और अयोग्य शिक्षकों के कारण यहां के लोगों का भी शिक्षण संस्थानों से भरोसा उठ सा गया है। इसी बदहाली के कारण बेहतर शिक्षा के लिए कई सालों से बड़ी संख्या में विद्यार्थियों का प्रदेश से बाहर पलायन होता रहा है। यदि अब भी इस विषय पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो यह प्रदेश पूरी तरह से गरीबों व मजदूरों का प्रदेश बन कर रह जाएगा।
शिक्षण संस्थानों से जुड़े जिम्मेदार लोगों के साथ ही सरकार और ईमानदारी से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों को इसे गंभीरता से लेना होगा और व्यक्तिगत हितों को भूलकर एकजुट हो युद्धस्तर पर विश्वविद्यालय की छवि व स्तर सुधारने के लिए काम करना होगा। इसमें किसी भी तरह की राजनीति व तनिक भी देरी घातक साबित होगी।
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