‘दुनिया मेरे आगे कॉलम’ में मनोज कुमार का लेख: सुनहरी आभा

जनसत्ता नई दिल्ली | वक्त वाकई बदल गया है, अब यह कहने में कुछ खास नयापन नहीं लगता है। लेकिन कई बार कोई वाकया इसके नए संदर्भ समझा देता है। पहले के विद्यार्थी श्रद्धा से अपने शिक्षकों के आगे सिर नवा लेते थे, आंखें झुका लेते थे।
बेहद विनीत स्वर में तर्क करते थे और अपनी जिज्ञासाएं प्रकट किया करते थे। यह बात अलग है कि वे आंदोलन के दौरान सड़क पर उतरने के बाद वाहनों में आग भी लगा देते थे और सामाजिक रूप से शारीरिक बल का प्रदर्शन भी करते थे। लेकिन यहां हमारे विद्यार्थी जिस मुद्दे पर आंदोलनरत थे, वह कुछ खास था। खासतौर से छात्राएं बड़ी संख्या में विभाग के बाहर गलियारे में बैठी थीं। मैं देख रहा था कि हमारे कई प्रोफेसर उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे थे। पर आंदोलनकारी टस से मस नहीं हो रहे थे। कक्षा में आमतौर पर शांत बैठी रहने वाली छात्राएं प्रोफेसर साहब के चेहरे पर देखते हुए अपनी बातें रख रही थीं।


हमें अपना जमाना याद आया, जब हम शिक्षकों के सामने सिर नवा कर विनीत स्वर में निवेदन करते थे और उनके कथन को अंतिम वाक्य मान लेते थे। उनकी आज्ञा की अवहेलना के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। मैं स्वीकार करूंगा कि जब छात्राओं ने अपने आंदोलन के मुद्दे से मुझे परिचित कराना चाहा तो मुझे हंसी आ गई। बेशक वह हंसी उन्हें ‘बच्चा’ समझ लेने की थी। कुछ इस तरह कि ‘ये बच्चे अब मुझे समझाएंगे!’ लेकिन उनकी निरंतरता, शांत और शालीन गंभीरता ने मुझे अहसास कराया कि इनकी ज्यादातर बातें सही हैं और उन्हें बच्चे की तरह नहीं, बल्कि गंभीर और जागरूक छात्र-छात्राओं की तरह लिया जाना चाहिए। ये अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं और भविष्य के लिए लोकतंत्र के कार्यकर्ता के रूप में विकसित हो रहे हैं। इनमें से किसी का संबंध किसी भी राजनीतिक दल से नहीं है। जब विद्यार्थी संगठनों के नुमाइंदे इनके बीच आए तो इनकी लीडर ने साफतौर पर कह दिया था कि वे अपनी राजनीतिक और विचारधारात्मक पहचान के साथ न आएं। मेरे लिए फख्र की बात है कि इनमें से बहुत-से मेरे विद्यार्थी हैं।

आंदोलन कर रहे विद्यार्थियों की मुख्य मांगों में परीक्षाफल में प्राप्त अंकों में वृद्धि, उत्तर पुस्तिका की जांच को पारदर्शी बनाना आदि शामिल था। जब मैंने तर्क रखा कि परीक्षा में अंकों का निर्धारण शिक्षक का विशेषाधिकार है और अंकों में वृद्धि या न्यूततम अंकों की मांग जायज नहीं है, तो उनका तर्क था कि बेहद औसत विद्यार्थी को भी देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में भारी अंक मिलते हैं और बेहतर गुणवत्ता के बावजूद किसी को बहुत कम अंक मिलते हैं। ऐसी दशा में वे एमफिल या पीएचडी की प्रवेश परीक्षाओं में पीछे हो जाते हैं। विद्यार्थियों को लग रहा था कि उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उनका भय निराधार नहीं लगा।

पिछले आठ-दस सालों के दौरान विश्वविद्यालय में कई सारे प्रयोग किए गए हैं। वार्षिक अध्ययन प्रणाली की समाप्ति, सेमेस्टर प्रणाली लागू करना, चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू करना और वापस लेना और अब सीबीसीएस। विश्वविद्यालयी जीवन इतना सारा प्रयोग झेलने का आदी नहीं था कभी। इन पाठ्यक्रमों को सफल घोषित करने के लिए अक्सर मनमाने अंक दिए गए। जिन विद्याार्थियों को अस्सी फीसद या इससे अधिक की आदत लगा दी गई हो, उन्हें पचपन या साठ प्रतिशत अखरेगा ही!

खैर, मांगों से बढ़ कर उनके तरीकों ने मुझे प्रभावित किया। एक प्रशिक्षित आंदोलन की तरह उनके पास पोस्टर दिखे, जिन पर उनकी मांगें लिखी थीं। उनकी एकजुटता दिखी, उनका खुद पर विश्वास दिखा। वे हर जगह समूह में दिखे और समूह को नजरअंदाज करना कभी और किसी के लिए भी आसान नहीं होता। जिस ‘अभिभूतवाद’ की शिकार हमारी पीढ़ी रही थी, यह पीढ़ी उससे काफी मुक्त दिख रही थी। इसे मैं महानगरीय परिवेश में उपलब्ध ‘लोकतांत्रिक स्पेस’ के ‘उपभोगकर्ता’ के रूप में देखता हूं। इन्हें लोकतांत्रिक अधिकारों का इल्म है और लोकतांत्रिक मर्यादा का भी। इस रूप में यह अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से भिन्न हैं।

मुझे याद है अपना बचपन, जब सामंती माहौल में प्रशिक्षित आंदोलनरत विद्यार्थी रेलगाड़ी रोक देते थे, बसों और जीपों को आग के हवाले कर दिया करते थे। तब सड़कें सुनसान हो जाती थीं। लेकिन आज लोकतांत्रिक दौर के हमारे ये आंदोलनरत विद्यार्थी या तो गलियारे में बैठ कर काम ठप्प कर देते थे या फिर पोस्टर और प्ले कार्ड के सााथ सामूहिक रूप खड़े होकर लोगों का ध्यान आकृष्ट करते थे। एक और बात काबिले गौर थी- छात्राओं की बड़ी संख्या में मौजूदगी। ये छात्राएं समाज के लिए भविष्य का आईना हैं- जागरूक, सचेत, आत्मविश्वास और ऊर्जा से भरपूर। ऐसी छात्राएं भविष्य में लोकतंत्र की झंडाबरदार बनेंगी। इनके चेहरों पर भविष्य की सुनहरी आभा दिखाई देती है।
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