नई दिल्ली: आज दिनांक 12 अप्रैल 2017 को ठेका वर्कर के लिए "समान काम का समान वेतन" को लागू करने की मांग की जनहित याचिका की सुनवाई दिल्ली हाई कोर्ट में हुई. जिसमें भारत के संविधान के समानता के अधिकार और 47 वर्ष पूर्व बने ठेका कानून के इसी कानून से सम्बंधित नियम 1971- प्रावधान "समान काम का समान वेतन" को पूरे देश के 69 लाख ठेका वर्कर के लिए लागू करने की मांग की गई है.
जिसके सुनवाई के बाद 2 अप्रैल 2014 को माननीय कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी कर जबाब माँगा था. याचिकाकर्ता श्री सुरजीत श्यामल ने माननीय कोर्ट से अपील की है कि इस सम्बंध में सरकार को गाइडलाईन बनाने का दिशा निर्देश दिया जाए ताकि ठेकेदार और मुख्यनियोक्ता देश का पढ़े-लिखे वर्करों को शोषित नहीं कर पाए.
"समान काम के लिए समान वेतन" के अनुसार अगर ठेकेदार के द्वारा ठेका वर्कर मुख्यनियोक्ता के स्थायी वर्कर के बराबर और सामान काम करता है तो उस ठेका वर्कर का वेतन और सभी सेवा सुविधायें मुख्यनियोक्ता के स्थायी वर्कर के बराबर और सामान होगा".
जिसमें सरकार के तरफ से अधिवक्ता ने माननीय कोर्ट को गुमराह करने की कोशिस करते हुए ठेका कानून 1970 के धारा 21 का रेफरेंस देते हुए कहा कि हमें इंस्पेक्शन का आदेश दिया जाए. जबकि इस मांग का कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 के धारा 21 से कोई लेना देना नहीं है. क्योकि अभी तक यह लागु ही नहीं हुआ. जिसके बाद माननीय कोर्ट ने यह कहा कि यह यह वेजेज नहीं मिलने की शिकायत नहीं है बल्कि सामान काम के लिए सामान वेतन की मांग है. सुप्रीम कोर्ट के कई आर्डर हैं कि सरकारी विभाग में न्यूनतम वेतन का मतलब उसके अपने कर्मचारी के न्यूनतम वेतन से हैं. आगे दुबारा से ऐसी बात न दुहराई जाए साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली. इसके बाद याचिकाकर्ता के अधिकवक्ता राकेश कुमार शर्मा के अनुरोध पर सरकार व अन्य सभी प्रतिवादियों के जबाब के प्रतिउतर स्वीकार करते हुए बहस जारी के लिए अगली तारीख 11 मई तय की गई है.
जिस प्रतिउतर में याचिकाकर्ता श्री श्यामल के अनुसार देश के विभिन्न सरकारी विभागों जैसे आईआरसीटीसी, सीबीएसई, एमटीएनएल, दिल्ली मेट्रो, रेलवे के विभाग, पोस्टऑफिस, दिल्ली के लगभग सभी सरकारी अस्पताल के अलावा अनगिनत उदाहरण पेश किये हैं. जहां सरकारी तंत्र द्वारा कॉस्ट कटिंग के नाम पर पढ़े-लिखे युवाओं का ठेका सिस्टम के नाम पर शोषण किया जा रहा है.
जिसके सुनवाई के बाद 2 अप्रैल 2014 को माननीय कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी कर जबाब माँगा था. याचिकाकर्ता श्री सुरजीत श्यामल ने माननीय कोर्ट से अपील की है कि इस सम्बंध में सरकार को गाइडलाईन बनाने का दिशा निर्देश दिया जाए ताकि ठेकेदार और मुख्यनियोक्ता देश का पढ़े-लिखे वर्करों को शोषित नहीं कर पाए.
"समान काम के लिए समान वेतन" के अनुसार अगर ठेकेदार के द्वारा ठेका वर्कर मुख्यनियोक्ता के स्थायी वर्कर के बराबर और सामान काम करता है तो उस ठेका वर्कर का वेतन और सभी सेवा सुविधायें मुख्यनियोक्ता के स्थायी वर्कर के बराबर और सामान होगा".
जिसमें सरकार के तरफ से अधिवक्ता ने माननीय कोर्ट को गुमराह करने की कोशिस करते हुए ठेका कानून 1970 के धारा 21 का रेफरेंस देते हुए कहा कि हमें इंस्पेक्शन का आदेश दिया जाए. जबकि इस मांग का कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 के धारा 21 से कोई लेना देना नहीं है. क्योकि अभी तक यह लागु ही नहीं हुआ. जिसके बाद माननीय कोर्ट ने यह कहा कि यह यह वेजेज नहीं मिलने की शिकायत नहीं है बल्कि सामान काम के लिए सामान वेतन की मांग है. सुप्रीम कोर्ट के कई आर्डर हैं कि सरकारी विभाग में न्यूनतम वेतन का मतलब उसके अपने कर्मचारी के न्यूनतम वेतन से हैं. आगे दुबारा से ऐसी बात न दुहराई जाए साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली. इसके बाद याचिकाकर्ता के अधिकवक्ता राकेश कुमार शर्मा के अनुरोध पर सरकार व अन्य सभी प्रतिवादियों के जबाब के प्रतिउतर स्वीकार करते हुए बहस जारी के लिए अगली तारीख 11 मई तय की गई है.
जिस प्रतिउतर में याचिकाकर्ता श्री श्यामल के अनुसार देश के विभिन्न सरकारी विभागों जैसे आईआरसीटीसी, सीबीएसई, एमटीएनएल, दिल्ली मेट्रो, रेलवे के विभाग, पोस्टऑफिस, दिल्ली के लगभग सभी सरकारी अस्पताल के अलावा अनगिनत उदाहरण पेश किये हैं. जहां सरकारी तंत्र द्वारा कॉस्ट कटिंग के नाम पर पढ़े-लिखे युवाओं का ठेका सिस्टम के नाम पर शोषण किया जा रहा है.