नौकरी के लिए जबरदस्त प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बिहार में 14 हजार से भी अधिक प्राइमरी शिक्षकों द्वारा इस्तीफे तो चौंकाने वाले हैं ही, लेकिन उनका कारण शर्मसार करने वाला है। हमारे यहां गुरु को गोविंद यानी भगवान से भी ऊंचा स्थान दिया गया है, लेकिन इन कलियुगी गुरुओं ने उस आस्था का अपमान ही किया है। बिहार के प्राइमरी शिक्षकों में इस्तीफा देने की यह दौड़ इसलिए है, क्योंकि फर्जी और अमान्य प्रमाणपत्रों के आधार पर नौकरी पाने वाले शिक्षकों को दंड से बचने के लिए 9 जुलाई तक इस्तीफा दे देने का अल्टीमेटम दिया गया है। शिक्षकों और शिक्षा के प्रति बिहार सरकार की यह सजगता भी अनायास नहीं है।
यह पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश का परिणाम है, जिसमें बिहार सरकार को फर्जी और अमान्य प्रमाणपत्रों पर नौकरी हासिल करने वाले स्कूल शिक्षकों से पब्लिक नोटिस जारी होने के सप्ताह भर के अंदर ही इस्तीफा लेने को कहा गया है। जाहिर है, 9 जुलाई की समय सीमा समाप्त होते-होते इस्तीफा देने वाले गुरुओं की संख्या और भी बढ़ने की संभावना है, क्योंकि शिक्षा के फर्जीवाड़े के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश अरसे से बदनाम रहे हैं। कहना नहीं होगा कि फर्जी गुरुओं का पर्दाफाश करवाने का आधार बनी जनहित याचिका दायर करने वाले और उस पर सक्रियता दिखाने वाली न्यायपालिका साधुवाद की पात्र है, वरना तो अरसे से चल रहा यह गोरखधंधा अनंतकाल तक चलता रहता। जिस शिक्षा को अज्ञान का अंधकार दूर कर बेहतर भविष्य और इनसान बनाने वाला माना गया है, उसे ही दूषित करने वाले इन फर्जी शिक्षकों के विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई पर शायद ही किसी को कोई आपत्ति होगी, लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि अपने सेवाकाल में लाखों छात्र-छात्राओं का भविष्य चौपट करने वाले इन गुरुओं के विरुद्ध धोखाधड़ी समेत उचित धाराओं में मुकदमा चलाने के बजाय इस्तीफा देकर बच निकलने का विकल्प क्यों दिया जा रहा है? यह भी कि इन्हें भर्ती करने वालों से जवाब-तलब कर उनके विरुद्ध भी कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही? और भी बड़ा सवाल यह है कि ऐसे फर्जी शिक्षक कैसे छात्र और अंतत: कैसे नागरिक तैयार कर रहे होंगे? यह मान लेना नादानी होगी कि यह फर्जीवाड़ा बिना ऊपरी मिलीभगत के चल रहा होगा। न्यायमूर्ति एल नरसिम्हा रेड्डी और न्यायमूर्ति सुधीर सिंह की पीठ ने इस बात पर हैरानी भी जतायी है कि बिहार के शिक्षा मंत्री ने खुद सार्वजनिक बयान दिया है कि फर्जी और अमान्य प्रमाणपत्रों के आधार पर शिक्षकों की भर्ती हुई, उसके बाद भी ये शिक्षक सेवा में बने हुए हैं।
शिक्षा और शिक्षकों के स्तर की बाबत आंखें खोल देने वाला यह मामला बिहार की प्राइमरी शिक्षा से जुड़ा है, लेकिन अन्य स्तर पर और दूसरे राज्यों में भी हालात बहुत अलग नहीं हैं। यकीन मानिए कि अगर अन्य उच्च न्यायालय भी पटना उच्च न्यायालय की तरह इस मामले में सख्त रुख अख्तियार कर लें या फिर अप्रत्याशित रूप से राज्य सरकारें ही जाग जायें तो ऐसे फर्जी शिक्षकों के इस्तीफों की देश में बाढ़ ही आ जायेगी। यह फर्जीवाड़ा सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। झोलाछाप फर्जी डॉक्टरों द्वारा मरीजों की सेहत ही नहीं, जान से खिलवाड़ की खबरें हमारे देश में आम रही हैं। फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस और शस्त्र लाइसेंस के किस्से भी आये दिन समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं, लेकिन इन शर्मनाक खुलासों के बावजूद इस फर्जीवाड़े पर कारगर अंकुश की कोई सरकारी कवायद नजर नहीं आती। शायद इसलिए भी कि यह गोरखधंधा चल ही सरकारी तंत्र में पसरे भ्रष्टाचार की बदौलत रहा है। कहना नहीं होगा कि अगर ऐसे देश के रूप में अपनी साख बचानी है तो सरकारों को इस पर लगाम लगानी होगी, वरना यह जिम्मेदारी भी न्यायपालिका को ही अपने हाथ में लेनी होगी, पर बच अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से समाज भी नहीं सकता। आखिर तरह-तरह के फर्जी प्रमाणपत्र जुटा कर धोखाधड़ी करने वाले भी तो हमारे ही बीच के लोग और इस देश के नागरिक हैं। हम क्यों नहीं समझते कि एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमारा दायित्व फर्जीवाड़े को रोकना और नियम-कानून की पालना सुनिश्चित करना है। हम ऐसा करने में लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। यही कारण है कि हमारी छवि नियम-कानून का पालन करने वाले जिम्मेदार नागरिक की नहीं, बल्कि उसके विपरीत बन रही है। इक्कीसवीं सदी में जब आर्थिक शक्ति और आईटी में अगुअा के रूप में भारत को देखा जा रहा है, हमें अपनी विश्वसनीयता पर गहराते ऐसे सवालों का स्थायी समाधान खोजना होगा।
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यह पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश का परिणाम है, जिसमें बिहार सरकार को फर्जी और अमान्य प्रमाणपत्रों पर नौकरी हासिल करने वाले स्कूल शिक्षकों से पब्लिक नोटिस जारी होने के सप्ताह भर के अंदर ही इस्तीफा लेने को कहा गया है। जाहिर है, 9 जुलाई की समय सीमा समाप्त होते-होते इस्तीफा देने वाले गुरुओं की संख्या और भी बढ़ने की संभावना है, क्योंकि शिक्षा के फर्जीवाड़े के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश अरसे से बदनाम रहे हैं। कहना नहीं होगा कि फर्जी गुरुओं का पर्दाफाश करवाने का आधार बनी जनहित याचिका दायर करने वाले और उस पर सक्रियता दिखाने वाली न्यायपालिका साधुवाद की पात्र है, वरना तो अरसे से चल रहा यह गोरखधंधा अनंतकाल तक चलता रहता। जिस शिक्षा को अज्ञान का अंधकार दूर कर बेहतर भविष्य और इनसान बनाने वाला माना गया है, उसे ही दूषित करने वाले इन फर्जी शिक्षकों के विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई पर शायद ही किसी को कोई आपत्ति होगी, लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि अपने सेवाकाल में लाखों छात्र-छात्राओं का भविष्य चौपट करने वाले इन गुरुओं के विरुद्ध धोखाधड़ी समेत उचित धाराओं में मुकदमा चलाने के बजाय इस्तीफा देकर बच निकलने का विकल्प क्यों दिया जा रहा है? यह भी कि इन्हें भर्ती करने वालों से जवाब-तलब कर उनके विरुद्ध भी कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही? और भी बड़ा सवाल यह है कि ऐसे फर्जी शिक्षक कैसे छात्र और अंतत: कैसे नागरिक तैयार कर रहे होंगे? यह मान लेना नादानी होगी कि यह फर्जीवाड़ा बिना ऊपरी मिलीभगत के चल रहा होगा। न्यायमूर्ति एल नरसिम्हा रेड्डी और न्यायमूर्ति सुधीर सिंह की पीठ ने इस बात पर हैरानी भी जतायी है कि बिहार के शिक्षा मंत्री ने खुद सार्वजनिक बयान दिया है कि फर्जी और अमान्य प्रमाणपत्रों के आधार पर शिक्षकों की भर्ती हुई, उसके बाद भी ये शिक्षक सेवा में बने हुए हैं।
शिक्षा और शिक्षकों के स्तर की बाबत आंखें खोल देने वाला यह मामला बिहार की प्राइमरी शिक्षा से जुड़ा है, लेकिन अन्य स्तर पर और दूसरे राज्यों में भी हालात बहुत अलग नहीं हैं। यकीन मानिए कि अगर अन्य उच्च न्यायालय भी पटना उच्च न्यायालय की तरह इस मामले में सख्त रुख अख्तियार कर लें या फिर अप्रत्याशित रूप से राज्य सरकारें ही जाग जायें तो ऐसे फर्जी शिक्षकों के इस्तीफों की देश में बाढ़ ही आ जायेगी। यह फर्जीवाड़ा सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। झोलाछाप फर्जी डॉक्टरों द्वारा मरीजों की सेहत ही नहीं, जान से खिलवाड़ की खबरें हमारे देश में आम रही हैं। फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस और शस्त्र लाइसेंस के किस्से भी आये दिन समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं, लेकिन इन शर्मनाक खुलासों के बावजूद इस फर्जीवाड़े पर कारगर अंकुश की कोई सरकारी कवायद नजर नहीं आती। शायद इसलिए भी कि यह गोरखधंधा चल ही सरकारी तंत्र में पसरे भ्रष्टाचार की बदौलत रहा है। कहना नहीं होगा कि अगर ऐसे देश के रूप में अपनी साख बचानी है तो सरकारों को इस पर लगाम लगानी होगी, वरना यह जिम्मेदारी भी न्यायपालिका को ही अपने हाथ में लेनी होगी, पर बच अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से समाज भी नहीं सकता। आखिर तरह-तरह के फर्जी प्रमाणपत्र जुटा कर धोखाधड़ी करने वाले भी तो हमारे ही बीच के लोग और इस देश के नागरिक हैं। हम क्यों नहीं समझते कि एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमारा दायित्व फर्जीवाड़े को रोकना और नियम-कानून की पालना सुनिश्चित करना है। हम ऐसा करने में लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। यही कारण है कि हमारी छवि नियम-कानून का पालन करने वाले जिम्मेदार नागरिक की नहीं, बल्कि उसके विपरीत बन रही है। इक्कीसवीं सदी में जब आर्थिक शक्ति और आईटी में अगुअा के रूप में भारत को देखा जा रहा है, हमें अपनी विश्वसनीयता पर गहराते ऐसे सवालों का स्थायी समाधान खोजना होगा।