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दम तोड़ रहे हैं बिहार के सरकारी प्राइमरी स्कूल: ग्राउंड रिपोर्ट

बिहार की राजधानी पटना का दिल कहे जाने वाले बोरिंग रोड पर एएन कॉलेज, पानी टंकी के नीचे तीन सरकारी प्राइमरी स्कूल चलते हैं.

लेकिन यहाँ से सैकड़ों बार गुज़रने के बाद भी मुझे आज तक ये स्कूल नहीं दिखे.
लेकिन उससे भी अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उनमें से एक स्कूल, प्राथमिक विद्यालय, राजीव नगर, रेलवे लाइन को शिक्षा विभाग ने उन प्राइमरी स्कूलों की लिस्ट में डाल दिया है जिन्हें 40 से भी कम नामांकन होने के कारण बंद करने की योजना बनाई जा रही है.
ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार राज्य "बच्चों की मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा नियमावली 2011" की कंडिका 4(1) में स्पष्ट अंकित है कि " प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना वैसे बसाव-क्षेत्र, जहां 6-14 आयुवर्ग के बच्चों की संख्या कम से कम 40 हो, के एक किलोमीटर की सीमा के अंतर्गत की जाएगी."
ऐसे में 40 से कम नामांकन वाले सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का संचालन शिक्षा के अधिकार कानून के तहत निर्धारित मानक के अनुरूप नहीं है.
तो क्या "प्राथमिक विद्यालय, राजीव नगर रेलवे लाइन" के एक किमी के दायरे के अंदर 40 बच्चे भी प्राइमरी स्कूल जाने वाले नहीं है?
जबकि शहर के बीचो-बीच घनी आबादी वाले क्षेत्र में स्थित इस स्कूल के एक किमी के दायरे में राजीव नगर, पाटलीपुत्र, इंद्रपुरी जैसे रिहाइशी इलाके हैं. जहां एक किमी के दायरे में हजारों बच्चे पढ़ने वाले हैं जो हर रोज इसी पानी टंकी चौक से प्राइवेट स्कूलों वाली बसों मे चढ़कर जाते हुए दिखते हैं.
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कहां हैं इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे?

इससे भी चिंताजनक ये है कि यू-डायस के आंकड़ों के मुताबिक अत्यंत कम नामांकन वाले स्कूलों की लिस्ट में पटना ज़िले के 133 स्कूल शामिल हैं.
इनमें से दो विद्यालयों (प्राथमिक विद्यालय वाजनचक, नौबतपुर और प्राथमिक विद्यालय, मनेर) में तो नामांकन शून्य तक पहुंच गया है.
यू डायस 2017-18 के आंकड़ों पर बारीकी से नजर डालने पर यह भी स्पष्ट होता है कि राज्य के कुल 13 प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन शून्य है, जबकि 171 प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन शून्य से अधिक एवं 20 से कम है.
इसी प्रकार 21 से 30 एवं 31 से 39 नामांकन वाले प्राथमिक विद्यालयों की संख्या क्रमश: 336 एवं 620 है.
आखिर क्या वजह है कि बिहार के इन सरकारी प्राइमरी स्कूलों को बंद करने की नौबत आ पड़ी है?
और राजधानी के अंदर भी घनी बसावट वाले क्षेत्र के इन स्कूलों में बच्चे क्यों कम होते जा रहे हैं?
बोरिंग रोड पर एएन कॉलेज, पानी टंकी के पास एक साथ चल रहे तीनों सरकारी प्राइमरी स्कूल ना सिर्फ इन सवालों के जवाब देते हैं, बल्कि पिछले 20 सालों से चली आ रही व्यवस्था की उदासीनता को भी जगजाहिर करते हैं.
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झोपड़ी में चलने वाला प्राइमरी स्कूल

पानी टंकी के पास एक दुकानदार से पूछने पर कि क्या यहां कोई सरकारी प्राइमरी स्कूल भी चलता है. उसने बांस के टाट पर टंगे बिहार शिक्षा परियोजना के बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए कहा, "आप उस झोपड़ी में चलने वाले स्कूल की बात कर रहे हैं क्या?"
बिहार शिक्षा परियोजना द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालय राजीव नगर, रेलवे लाइन में 28 दिसंबर के सुबह की कक्षाएं लग चुकी थीं.
फूस की छत के नीचे बांस के टाट के घेरे में जमीन पर कुछ बच्चे बैठ कर पढ़ रहे थे. झोपड़ी के बीच वाले बांस पर जिसके सहारे पूरा ढांचा टिका था, उसपर एक ब्लैकबोर्ड भी टंगा था.
ठीक बगल वाले बांस पर लटकी घड़ी स्कूल में साढ़े तीन बजा रही थी और उसी बांस पर सबसे ऊपर टंगी देशरत्न राजेंद्र प्रसाद की तस्वीर ज़मीन पर बैठे बच्चों को एकटक देख रही थी.
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एक टीचर के सहारे चलता स्कूल

यू-डायस के आंकड़ों में स्कूल में बच्चों की संख्या तो 35 दर्ज है, मगर मुश्किल से 12-15 बच्चे ही स्कूल आए थे. स्कूल में कुल दो शिक्षक नियुक्त थे.
मगर मौजूद एक ही शिक्षक मिले. उन्होंने भी बात करने से यह कहकर इनकार कर दिया कि, "अभी प्रभारी महोदय नहीं है, आपको जो बात करनी है उन्हीं से कीजिएगा. नहीं तो इसी झोपड़ी में पीछे एक और विद्यालय प्राथमिक विद्यालय, इंद्रपुरी चलता है. वहां बात कर लीजिए."
प्राथमिक विद्यालय, इंद्रपुरी के लिए कोई बोर्ड तो नहीं लगा था, मगर पानी टंकी के पिलर पर स्कूल का नाम लिखकर तीर का निशान दे दिया गया था, यह बताने के लिए कि स्कूल उसी झोपड़ी में पीछे की तरफ है.
प्राथमिक विद्यालय राजीव नगर की तरह यहां भी बच्चे उसी हाल में ज़मीन पर बैठ कर पढ़ रहे थे.
नामांकन 93 बच्चों का था, 25-30 बच्चे (अभी तक उपस्थिति दर्ज नहीं हुई थी) उपस्थित थे. क्लासरूम की सामग्रियां और संसाधन भी कमोबेश समान थे. और उन्हें पहले वाले स्कूल की तरह सजाया भी गया था.
सुबह के साढ़े दस बजे से ज्यादा का वक्त हो रहा था, मगर हेडमास्टर साहेब यहां भी अब तक स्कूल में नहीं आए थे. हालांकि, पदस्थापित तीनों शिक्षक स्कूल में थे.
प्राथमिक विद्यालय, इंद्रपुरी की शिक्षिका ब्लैक बोर्ड पर उच्चारण करते हुए शब्दों के अर्थ लिख रही थीं, बच्चे उन्हें दोहराते जा रहे थे,
"परसिडेंट :(माने) राष्ट्रपति, हालि-हालि: (माने) जल्दी-जल्दी."
"हम बीबीसी हिंदी न्यूज़ से हैं." ये जानकर शिक्षिका बच्चों को शांत कराने लगीं. फिर कहती हैं, "आप इन बच्चों से ही जो पूछना है पूछ लीजिए. हम अभी यहां के शिक्षक हैं, जहां रखा जाएगा वहां रहेंगे. हेडमास्टर साहब अभी नहीं हैं, वो आएंगे तो बोलेंगे."
हाथ में अंडे का ट्रे लेकर हेडमास्टर राघवेंद्र कुमार आते दिखे तो बरबस ही सोशल मीडिया पर वायरल उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के स्कूल के वीडियो की याद आ गई जिसमें 11 साल का एक बच्चा शिक्षकों की फरमाइश पर गीत सुनाता है,
"जब से चढ़ल भगोना प्राइमरी स्कूल में
गइल पढ़ाई चूल्ह में ना...."
हमारे पूछने से पहले ही कि "वो लेट से स्कूल क्यों आए? अंडे का ट्रे दिखाते हुए कहते हैं, "आज के एमडीएम मेन्यू में अंडा शामिल था. यही लाने चले गए थे. मध्याह्न भोजन योजना को लेकर बहुत सख्ती है. इसमें लापरवाही नहीं की जा सकती. "
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आला-अफ़सरों की बेरुखी
शहर के बीचोबीच जहां आस-पास के इलाके (पाटलिपुत्र, शिवपुरी, इंद्रपुरी, महेश नगर, राजीवनगर) पॉश इलाकों के रूप में गिने जाते हैं.
यहां से बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के कार्यालय तथा मुख्यमंत्री आवास की दूरी तीन किलोमीटर से भी कम है और जिस सड़क से रोज़ाना सैकड़ों नेता-अधिकारी गुजरते हैं, वहां इस तरह फूस की झोपड़ी के अंदर हाड़ कंपा देने वाले ठंड में जमीन पर बैठे बैठकर पढ़ रहे इन बच्चों पर किसी की नज़र क्यों नहीं जाती है.
इसके जवाब में हेडमास्टर कहते हैं, "सबकी नज़र जाती है. ये आज से नहीं है. 1998-99 में जब पटना के डीएम केपी रमैया थे तभी ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड के तहत जल निगम की बोर्ड में इस स्कूल को शुरु कराया गया था. कई बार टीवी और अखबार वाले भी आए. कौन नहीं जानता कि 20 साल से यहां स्कूल चल रहा है."
"नेता और अधिकारी सभी लोग बच्चों के लिए गिफ्ट्स लेकर आते हैं. हम लोग बहुत दिनों से ये मांग कर रहे हैं कि ये जो पानी टंकी के नीचे वाली जल निगम की ज़मीन पर स्कूल चल रहा है, उसी पर कम से कम भवन बना दिया जाए. मगर आज तक कहां इसके लिए कुछ हुआ है. अब बात चल रही है कि इसे किसी दूसरे स्कूल के साथ जोड़ दिया जाएगा."
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स्कूलों में कम नामांकन क्यों?
स्कूल के एक किमी के दायरे में इतनी आबादी होने के बावजूद भी नामांकन इतना कम क्यों है?
राघवेंद्र कुमार कहते हैं, "अगर किसी के पास ज़रा भी पैसा है, वो अपने बच्चे को यहां नहीं पढ़ाना चाहता है. ना भवन है, ना भूमि है और ही संसाधन. आखिर कोई क्यों पढ़ाएगा अपने बच्चे को ऐसे स्कूल में?"
"यहां आने वाले बच्चों में सभी ग़रीब तबके के हैं. प्राय: दलित समुदाय से हैं. और ये वही बच्चे हैं जिनके पास इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. ये भी केवल इसलिए आते हैं क्योंकि इनके अभिभावकों को छात्र कल्याण वाली योजनाओं की राशि मिलती है. अभी आप इतने बच्चों को देख रहे हैं, खाना खाने के समय फिर संख्या गिनिएगा तो आठ से 10 छात्र और बढ़ जाएंगे. हम भी उन्हें कुछ नहीं कह सकते हैं, कम से कम इसी बहाने स्कूल तो आ रहे हैं.."
उस झोपड़ी का तीसरा स्कूल कौन सा है?
राघवेंद्र कुमार कहते हैं कि "उसको तीसरा मत बोलिए. इसी का हिस्सा है, दूसरी पाली में चलता है. उसके बच्चे भी उसमें जाते हैं, उसके बच्चे भी इसमें आते हैं."
हालांकि, कागजों पर वह विद्यालय भी एन कॉलेज, पानी टंकी प्राथमिक विद्यालय के रूप में दर्ज है.
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बच्चों की स्कूल के बारे में राय

लेकिन यहां आने वाले बच्चे अपने स्कूल के बारे में क्या सोचते हैं?
ये सवाल हमने जब एक ही साथ बैठे सभी कक्षाओं (एक से लेकर पांच तक) के बच्चों से किया तो किसी ने बोलने के लिए हाथ नहीं उठाया.
लेकिन जैसे ही शिक्षिका ने मेरा सवाल अपने मुंह से किया, बताने के लिए सबसे आगे बैठे पांचवी में पढ़ने वाले बिट्टू कुमार ने झट से अपना हाथ उठा दिया.
बिट्टू का स्कूल भी पक्का भवन होता, खेल का मैदान होता, बैठने के लिए बेंच और डेस्क की व्यवस्था होती और शौचालय बने होते ताकि पेशाब लगने पर रोड के किनारे नहीं जाना पड़ा तो उसे कैसा लगता?
बिट्टू ने दो लाइन का बस जवाब दिया और फिर उसके चेहरे पर उदासी छा गई.
उसने कहा, "अब हइये नहीं है तो क्या करें. पढ़ने तो आना ही है न, अब जैसा जो है, उसी में पढ़ रहे हैं."
बिट्टू अपनी मां के साथ शिवपुरी एक नंबर रोड में रहते हैं. उनकी मां दूसरे के घरों का काम करके पेट पालती है. बिट्टू के पीछे दूसरी कतार में बैठीं शिवपुरी से आने वाली सपना के पिता कपड़े प्रेस करने का काम करते हैं.
बीबीसी से बातचीत में चौथी कक्षा में पढ़ने वाली सपना कहती हैं, "मन तो करता है कि हम भी उन्हीं प्राइवेट स्कूलों में पढ़ें जहां बाकी बच्चे पढ़ते हैं. लेकिन वो सब इतना महंगा है कि उसमें नहीं पढ़ सकते. पापा के पास उतना पैसा नहीं है. अब यही है तो इसी में पढ़ रहे हैं."
स्कूल में शौचालय नहीं है, ऐसे में सपना को और भी परेशानी उठानी पड़ती है. कहती हैं, "उसके लिए दूसरे के घर में जाना पड़ता है. कहीं भी अगल-बगल चले जाते हैं. "
पानी टंकी के पास चल रहे इन सभी तीनों स्कूल को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों से भाग रहे हैं. राजधानी में पुलिस लाइन और बोर्ड कॉलोनी के प्राइमरी स्कूल भी इसी तरह झोपड़ी के अंदर चलते हैं.
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आख़िर क्यों नहीं रुकते बच्चे?

बोर्ड कॉलोनी के मध्य विद्यालय (जिसमें अब प्राथमिक विद्यालय को मर्ज कर दिया गया है) के शिक्षक संजय कुमार कहते हैं, "क्यों नहीं भागेंगे बच्चे! 1999 में ये स्कूल खुले थे. भवनहीन और भूमिहीन हाल में चल रहे इन स्कूलों को इन दिनों में ना तो भवन दिया गया और ना ही भूमि. विभाग प्राइमरी स्कूलों को मिडिल स्कूलों के साथ जोड़ता करता गया."
"ऐसे में स्कूल एक स्थान से हटकर दूसरे स्थान चले गए. आप स्कूल हटाएंगे तो बच्चे भी तो हट जाएंगे. 1999 के बाद से जनसंख्या इतनी बढ़ी, लेकिन स्कूल नहीं बढ़े और ना ही पुराने स्कूलों की मरम्मत की गई. बिना संसाधन और सुविधाओं के कौन अपने बच्चे को आपके यहां पढ़ाना चाहेगा".
दरअसल, पानी टंकी के पास झोपड़ी में चल रहे विद्यालयों का यह हाल बिहार के प्राथमिक विद्यालयों के खस्ताहाल का सिर्फ एक पहलू दिखाता है. दूसरा पहलू राजधानी पटना के ही नौबतपुर का प्राथमिक विद्यालय, वाजनकचक पेश करता है. जहां यू-डायस के आंकड़ों के मुताबिक शून्य नामांकन है.
29 दिसंबर को जब हम वाजनचक प्राथमिक विद्यालय पहुंचे तो स्कूल का मेन गेट बंद था. अंदर कैंपस तो साफ था, मगर कोने में जूठे पत्तल-गिलास फेंके हुए देखकर लगा कि हाल ही में यहां कोई खाने का कार्यक्रम आयोजित हुआ था.
कैंपस में झूले भी लगे थे, चार शौचालय भी बनाए गए थे. चारों कमरे बंद थे. स्कूल में तैनाती तो दो शिक्षकों की थी, मगर हमारे एक घंटे रुकने पर भी कोई नहीं दिखा.
स्कूल के सामने ही एक घर था जिसके दरवाज़े पर सूर्यनंदन शर्मा धूप सेंक रहे थे. बातचीत में कहा कि वाजनचक गांव में तीन से चार घर मात्र हैं. वो भी यहां नहीं पढ़ते हैं. खुद उनके घर के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं.
पूछने पर कि इतना करीब और इतना अच्छा स्कूल होने के बाद भी अपने बच्चे को यहां क्यों नहीं भेजते, तभी तो बाकी बच्चे भी आएंगे.
शर्मा कहते हैं, "कौन पढ़ाएगा बच्चों को. यहां पढ़ाई खत्म हो गई है. पहले अगल-बगल के गांव बकुआ और बखोरदाचक के बच्चे पढ़ने आते थे, मगर अब वो भी नहीं आते. सब लोकल टीचर लोग है. पढ़ाई कम, अपना काम ज्यादा करते हैं. हमलोग भी इसलिए अपने बच्चों को बाहर भेजने लगे."
वाजनचक स्कूल में हमें कोई नहीं मिला. शिक्षक तो नदारद ही थे. और यू डायस की रिपोर्ट के मुताबिक नामांकन भी शून्य है, इसलिए बच्चों का तो कोई सवाल ही नहीं था.
लेकिन, ऐसा क्यों है कि पानी टंकी वाले विद्यालयों से उलट वाजकचक प्राथमिक विद्यालय में तमाम संसाधनों के होने के बावजूद भी नामांकन शून्य है?
गांधी फेलोशिप के तहत प्राथमिक विद्यालयों के खस्ताहाल पर काम कर चुके चंद्रभूषण कहते हैं, "क्योंकि यहां कोई विज़न नहीं है. प्राइमरी एजुकेशन को लेकर तो खास तौर पर कोई काम नहीं हुआ है. यही आप यदि मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और केरल, कर्नाटक जैसे प्रदेशों में जाएँ तो वहां हालत ऐसी नहीं है. वहां प्राइमरी एजुकेशन के लेबल पर भी अलग-अलग मॉडल पर काम हो रहा है."
"मगर यहां बिहार में ऐसा नहीं है.सरकार ने 1996-97 के बाद से स्थायी शिक्षकों की बहाली नहीं हो पाई है. नियोजन पर शिक्षक रख लिए गए. पंचायत स्तर के उन शिक्षकों को फिर छात्र कल्याण की विभिन्न योजनाओं को चलाने का जिम्मा भी दे दिया गया. स्कूलों से पढ़ाई खत्म हो गई, वहां योजनाएं चलने लगीं और छात्र-अभिभावकों के शिक्षकों का संबंध कम होने लगा."
"राजस्थान में "प्रवेशोत्सव" मनाया जाता है, जिसमें साल में दो बार शिक्षक पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए बच्चों की खोज में अपने क्षेत्र पर निकलते हैं. अभिभावकों से बात करते हैं. फिर एक कैंपेन चलाकर उन बच्चों का स्कूल में नामांकन कराया जाता है. यह वहां के सरकार का ही इनिशिएटिव है. यहां वैसे ही क्यों नहीं हो सकता?"
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क्या कहते हैं आंकड़े?

यू डायस (U-Dias) के आंकड़े कहते हैं कि, बिहार के प्राइमरी स्कूलों में पिछले साल की तुलना में 1.8 करोड़ बच्चों का नामांकन गिरा है.
2016-17 के यू-डायस आंकड़ों में कुल 1.99 करोड़ बच्चों का नामांकन था, जबकि 2017-18 में यह घटकर 1.8 करोड़ पर आ गया है.
बिहार सरकार ने इस साल राज्य के बजट में शिक्षा के मद में सबसे अधिक करीब 32 हज़ार 125 करोड़ रुपए का आवंटन किया है.
बजट पास होने के बाद तत्कालीन मंत्री श्रवण कुमार ने बहुत बेबाकी से बयान दिया था कि, "सरकार ने शिक्षा के मद में सबसे अधिक राशि का आंवटन किया है. इससे सूबे में शिक्षा की सूरत बदल जाएगी. हर एक किलोमीटर पर प्राथमिक स्कूल खोले जाएंगे."
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क्या कहते हैं सरकारी अधिकारी?

लेकिन पुराने विद्यालयों में जहां संसाधनों का भारी अभाव है और जहां से बच्चे नाम कटाकर प्राइवेट स्कूल जा रहे हैं, विभाग उस पर कैसे लगाम लगाएगा?
इसके जवाब में बिहार शिक्षा परियोजना निदेशक संजय सिंह कहते हैं, "ये एक कठिन सवाल है. लेकिन जहां तक बच्चों के नामांकन की बात है तो पिछले सालों की तुलना में ड्रॉप आउट रेट कम हुआ है. शहरी क्षेत्रों में ज़मीन की दिक्कत है, इसलिए वहां एक-एक विद्यालय में तीन-तीन विद्यालय चल रहे हैं."
"नामांकन इसलिए भी कम हुआ है क्योंकि पहली बार यू डायस के आंकड़ों में चाइल्ड वाइज़ आंकड़ा लिया गया है. पहली बार हमारे पास हमारे विद्यालयों में पढ़ने वाले हर बच्चे का डाटा हमारे पास पहुंच गया है. इसमें योजनाओं का लाभ लेने के लिए कई फर्जी नामांकन भी हुए थे, जिन्हें हमने हटाया है."
संजय सिंह कहते हैं, "इसके पहले 1173 ऐसे ही प्राथमिक विद्यालयों जो भवनहीन और भूमिहीन थे, उन्हें चिन्हित कर दूसरे बड़े विद्यालयों के साथ जोड़ दिया गया है. आगे भी ऐसे विद्यालय जो भवनहीन और भूमिहीन होंगे उनका बगल के मघ्य विद्यालयों के साथ समावेश हो जाएगा."
लेकिन, समावेशन के बाद प्रति एक किमी की बसावट वाले क्षेत्र में तो प्राथमिक विद्यालय नहीं रह पाएंगे?
इसके जवाब में परियोजना निदेशक संजय सिंह कहते हैं, "नहीं, ऐसा नहीं है. यदि ऐसा होगा तो शिक्षा के अधिकार कानून का उल्लंघन हो जाएगा, जिसके मुताबिक प्रति एक किमी के दायरे में प्राथमिक विद्यालय होने अनिवार्य हैं."
क्या कम नामांकन वाले स्कूलों को क्या सच में बंद कर दिया जाएगा?
संजय सिंह इसके जवाब में कहते हैं, "ये शुरुआती आंकड़े हैं, वो काफ़ी चिंताजनक हैं, लेकिन हमलोग सिर्फ यू-डायस के आंकड़ों पर ही तय नहीं करेंगे. इन स्कूलों को सीधे बंद करने का फैसला नहीं लिया गया है. हमलोगों ने सभी जिलों से प्रतिवेदन रिपोर्ट मंगाई है. उसके बाद ही इस पर कोई फैसला लिया जाएगा."

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