बिहार की शिक्षा व्यवस्था: यह हाय तौबा क्यों?

इन दिनों, बिहार में शिक्षा कैसी हो या बच्चों को बेहतर शिक्षा कैसी दी जाय, पर हाय-तौबा मचा हुआ है। मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा तो यह है कि न केवल बिहार, बल्कि देश ने शिक्षा की जो डगर पकड़ी है या संविधान के नाम पर शिक्षा नीतियाँ, अधिनियम, नये-नये अभियान जैसे सतही शैक्षिक प्रक्रियाऐं शुरू की है उस से कैसे संभव है
कि किसी राज्य की शिक्षा बाल केन्द्रित होगी और उससे देशज बच्चों को एक चेता व्यक्ति बनने की शिक्षा मिलेगी ? यानि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा। यदि इस परिपेक्ष्य से बिहार हो या अन्य राज्य सभी जगह की स्थिति, वही ढ़ाक के तीन पात वाली है।
हाँ, यह सच है कि बिहार में साल दर साल, दशक दर दशक शिक्षा की गुणवत्ता एवं स्तर में ह्रास हो रहा है। शिक्षा के नाम पर एक विचित्र रुप की दौड़ है। लोक-लुभावने घोषणाएं हैं। परीक्षा के नाम पर घोटाले दर घोटाले, साथ ही लाखों-लाख बच्चे इंटर में फेल हो रहे हैं। इन चिंताओं को लेकर कुछ घड़ियाली आंसू पुनः बहा लिये जा सकते हैं। कुछ बौद्धिक एवं शिक्षा शास्त्रीय विमर्श कर लिये जा सकते हैं। कुछ प्रशासनिक फेर बदल के निर्णय ले लिये जा सकते हैं। लेकिन क्या कोई यह बता सकता है कि देश और राज्यों ने अपने 70 साल के विकास यात्रा के एक अहम आयाम ‘‘शिक्षा’’ के माध्यम से क्या एक क्रिटिकल समाज बनाने का कोई सचेतन एवं गंभीर प्रयास किया है?
ऐसी कोई व्यवस्था या संरचना विकसित करने की कोई कोशिश की गई है। क्या इंटर में फेल हो जाना या पास हो जाना ही शिक्षा है? ऐन-केन प्रकारेन ठेका पद्धति से थोक भाव में स्तरहीन शिक्षक नियोजन कर लेना शिक्षा है? एडवांस क्वालिफाई कर जाना ही शिक्षा है? आईआईटी में दाखिला ले लेना ही शिक्षा है? या इसके इतर भी शिक्षा का कोई संदर्भ बनता है?
जरूरत है, उपर्युक्त सन्दर्भों में शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा संरचना के दशा और दिशा को समझकर एक दीर्घकालिन योजना बनाने की। इस योजना के अन्तर्गत इन्स्टीच्यूषनल पूर्नगठन जैसे-राज्यों के सन्दर्भ में एस॰सी॰ई॰आर॰टी॰, डायट्स, पी॰टी॰ई॰सी॰, बी0आर0सी0 के स्वरूप एवं क्रियान्वयन प्रक्रिया में मौलिक बदलाव, शिक्षक-प्रषिक्षण संरचना निर्माण, जेनेरेटिव एवं क्रियामूलक पाठ्य-पुस्तक निर्माण, अर्थपूर्ण क्लास रूम ट्रान्जक्षन को खाद-पानी देने वाले संसाधनों का निर्माण।
ऐसा नहीं है कि, प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी गई कोई शासन व्यवस्था अगर चाह ले तो अपने देश और प्रदश के सभी बच्चों को एक अर्थपूर्ण शिक्षा नहीं दे सकती हैं? अनेकों ऐसे देश है जिन्होंने इसे साबित कर के दिखलाया है। ये और बात है कि हम अपने संवैधानिक प्रतिबद्धता के बावजूद अब तक ऐसा नहीं कर सके? आज भी यदि सरकार चाह ले तो यह संभव है। क्योंकि हमारे पास कोठारी कमीषन जैसे आयोग का एक समग्र सन्दर्भ एवं अनुशंसा है, आर.टी.ई. एक्ट है। बिहार के संदर्भ में सामान्य स्कूल प्रणाली के लिए मुचकुण्द दूबे कमिटि रिपोर्ट है।
इसके अतिरिक्त समय-समय पर विशेषज्ञ समितियों द्वारा प्राप्त की गई अनुषंसाएँ हैं। गोया- हमारे पास ऐसे नीति मूलक दस्तावेज हैं जिसका यदि प्रतिबद्धता, प्राथमिकता और दूरदर्शिता के साथ क्रियान्वयन हो तो ना ही कोई बोर्ड घोटाला हो सकता है, ना ही इन्टर में लाखों-लाख बच्चे फेल हो सकते हैं और ना ही श्रम्म् और श्रम्म् एडवांस रूपी एक अंधी और कथित कैरियरवादी शैक्षिक दौड़ होगी?
क्या बिहार, एक ऐसे दीर्घकालीन संदर्भ आधारित शिक्षा प्रणाली के लिए तैयार है? यदि तैयार है तो अकादमिक संस्थाओं एवं शोध संस्थाओं को भी अपने पूर्नगठन के लिए तैयार होना होगा। विविधता मूलक पाठ्य सामग्री बनानी होंगी, षिक्षक रूपान्तरण प्रक्रिया आयोजित करनी होगी, शिक्षा प्रषासन को संवेदनषील एवं जबावदार बनाना होगा और इसी के साथ-साथ सामुदायिक अनुश्रवण की रणनीति बनानी होगी। लेकिन एक ऐसी शिक्षा प्रणाली में सरकारों को दाता की भूमिका नहीं निभानी होगी, बल्कि सुगम भूमिका निभानी होगी। आज जरूरत है पूरी शिक्षा प्रणाली के पूर्नगठन और इस पूर्नगठित शिक्षा प्रणाली का नेतृत्व समुदाय को सुपुर्द किया जाय।

न्याय के साथ विकास एवं सबका साथ-सबका विकास के सूत्रधारों को इस आयाम से शिक्षा को देखे बिना हम बोर्ड घोटाला को न रोक सकते हैं और ना ही इन्टर में बच्चों को फेल होने से बचा सकते हैं? क्या फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली से हमारी सरकारें कुछ सीख सकती हैं? यह नहीं हो सकता है कि आप लोक लुभावन नारे ‘‘डिग्री लाओ- शिक्षक बन जाओ’’ के द्वारा ठेका पर शिक्षक नियोजन करेंगे और उम्मिद पालेंगे ‘‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’’ की। इसी क्रम में यह भी याद रखने की जरुरत है कि ‘‘शिक्षा एक राजनैतिक कर्म है’’। क्या हम इस परिपेक्ष्य से शिक्षा की रुप-रेखा, उसका संदर्भ और एक समग्र ब्लूप्रिंट बनाने के लिए सैद्धान्तिक और वैचारिक रुप से तैयार हैं या केवल ऐसे हाय-तौबा या केवल स्वांग रचना?

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