बिहार में शिक्षा की बदहाली क्यों?

बिहार में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली एक बार फिर सामने आई है। यह लगातार तीसरा साल है, जब बिहार की शिक्षा राष्ट्रव्यापी मजाक का विषय बनी है। 2015 में बिहार की शिक्षा की तस्वीर चार मंजिल की इमारतों पर स्पाइडर की तरह लटके लोगों की थी, जो अपने बच्चों को नकल करा रहे थे।
इनकी वीडियो पूरी दुनिया ने देखी। 2016 की तस्वीर रूबी राय की थी, जिसने परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया था। वह पॉलिटिकल साइंस को प्रोडिगल साइंस कह रही थी और उसे यह पता था कि इस विषय में खाना बनाना सिखाया जाता है। नतीजों के बाद वह जेल गई और जिस स्कूल से उसने पढ़ाई की, उसका संचालक भी जेल गया।
अब 2017 की तस्वीर गणेश कुमार की है। 41 साल का यह व्यक्ति फर्जी कागजात के आधार पर 24 साल का बन कर परीक्षा में शामिल हुआ और आर्ट्स का टॉपर बना। बाद में पता चला कि उसे संगीत के जिस विषय में सबसे ज्यादा नंबर मिले हैं, उसमें वह संगीत के सात सुरों का सा भी नहीं जानता है। हर बार की तरह इस बार भी यह त्रासद तस्वीर सामने आने के बाद कुछ अधिकारियों को हटा कर और स्कूल चलाने वालों पर कार्रवाई करके सरकार ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है।
लेकिन इतने भर से राज्य की सुशासन वाली सरकार के पाप नहीं धुलने वाले हैं। बिहार की शिक्षा व्यवस्था के साथ जो खिलवाड़ हुआ है वह अक्षम्य आपराधिक कृत्य है, जिसके लिए ऊपर से नीचे तक लोगों को जिम्मेदार ठहराने की जरूरत है। यह लाखों बच्चों के भविष्य को नष्ट करने और उनके अवसर खराब करके उनके जीवन को अंधेरे में धकेलना है। यह सिर्फ इतनी भर गड़बड़ी नहीं है कि टॉपर फ्रॉड है। इसका दायरा बहुत व्यापक है। ऐसे बच्चे परीक्षा में फेल हुए हैं, जिन्होंने आईआईटी की परीक्षा पास की हुई है। मैथ्स पढ़ने वाले बच्चों की मार्कशीट में बायोलॉजी के अंक जुड़े हुए हैं। यह अक्षम्य लापरवाही का नमूना है। इसका सीधा मतलब है कि पूरी परीक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है।
सवाल है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या सुशासन में शिक्षा शामिल नहीं है? असल में पिछले 27 साल में बेहद संस्थागत रूप से बिहार में शिक्षा और स्वास्थ्य प्रणाली को बरबाद किया गया है। जनता दल यू और भाजपा की पहली सरकार बनने पर थोड़े समय के लिए जरूर स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हुआ था, लेकिन पता नहीं किन कारणों से उस सुधार को रोक दिया गया और फिर शिक्षा व स्वास्थ्य को उसी ढर्रे पर डाला गया, जिस पर 1990 में लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के बाद से बिहार चल रहा था। अगर बिहार की शिक्षा की तस्वीर दीवार पर लटके लोग या रूबी राय और गणेश कुमार हैं तो स्वास्थ्य की तस्वीर वह है, जिसमें एक व्यक्ति अपनी पत्नी का शव मोटरसाइकिल पर रखा कर घर ले जा रहा है या अस्पताल के लोग कचरा ढोने वाली गाड़ी में एक व्यक्ति का शव पोस्टमार्टम के लिए ले जा रहे हैं। क्या इसी से सुशासन की तस्वीर पूरी होती है?
बिहार में शिक्षा की बदहाली इतनी संस्थागत है, उसे ठीक करना अब संभव नहीं दिख रहा है। लगभग पूरी शिक्षा ठेके पर बहाल कर दी गई है। ठेके पर रखे गए शिक्षकों की गुणवत्ता की परीक्षा अनेकों बार हो चुकी है, लेकिन राजनीतिक लाभ हानि की गणित ठीक करने के लिए सरकार उन पर कार्रवाई नहीं कर सकती है। किसी जमाने में बिहार के सरकारी स्कूलों और बिहार टेक्स्ट बुक की किताबों का डंका बजता था। उसी पढ़ाई से निकले छात्रों ने दशकों तक अखिल भारतीय परीक्षाओं में झंडा गाड़ा। लेकिन पिछड़े ढाई दशकों में सारे स्कूलों को मार दिया गया। स्कूलों और यहां तक कि कॉलेजों से शिक्षक रिटायर होते गए और उनकी जगह नए लोगों की नियुक्ति ठप्प रही। बाद में थोक के भाव से ठेके पर शिक्षक रखे गए, जिनकी नियुक्ति का एकमात्र पैमाना उनकी राजनीतिक पैरवी या पैसे का प्रभाव था।
अभी हालात ऐसे हैं कि ज्यादातर स्कूलों में प्रशिक्षित और अच्छे शिक्षक नहीं हैं और न पढ़ाई व प्रयोग की बुनियादी सुविधाएं हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि लालू प्रसाद के शुरुआती कार्यकाल में छात्रों का जो पलायन 12वीं के बाद होता था, नीतीश कुमार के राज में 12वीं से पहले ही होने लगा है। दिल्ली में पहले बिहार बोर्ड से पास होकर आए लड़के कॉलेजों में दाखिले के लिए संघर्ष करते थे, लेकिन अब दिल्ली के स्कूलों में दाखिले के लिए भरे जाने वाले फार्म्स में बड़ा हिस्सा बिहार के छात्रों का होता है। बहुत शुरुआती पढ़ाई के लिए ही अब बिहार से ब्रेन ड्रेन और रेवेन्यू ड्रेन होने लगा है।

जो बच्चे प्राथमिक और माध्यमिक की पढ़ाई के लिए दिल्ली या दूसरे बड़े शहर में नहीं जा पाते हैं, वे बिहार के निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी के प्राथमिक स्कूलों में अब वे ही बच्चे जाते हैं, जिनको दोपहर का खाना खाना होता है या माध्यमिक स्कूलों में वे बच्चे जाते हैं, जिनको माता पिता प्राइवेट स्कूल की फीस देने में सक्षम नहीं हैं। यानी दोनों जगह गरीब और वंचित तबके के बच्चे पढ़ते हैं। ऐसे में तो सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वालों को इन स्कूलों का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि शिक्षा माफिया की थैली सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर भारी पड़ रही है। तभी सुशासन के पुरोधा को भी राष्ट्रीय स्तर पर मजाक बनने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है।

Recent Articles


teacher recruitment , primary teacher vacancy , samvida shikshak , shikshak bharti , shikshak shikshak , atithi shikshak , shikshak bharti 2019 , shikshak bharti news today , shikshak bharti application , pavitra portal shikshak bharti 2019 , shikshak bharti merit list , shikshak bharti qualification , prathmik shikshak bharti , sahayak adhyapak bharti 2019 , sahayak adhyapak bharti pariksha 2019 , sahayak adhyapak bharti news , sahayak adhyapak bharti latest news , 12460 sahayak adhyapak bharti counselling , sahayak adhyapak bharti news today