बिहार के लगभग साढ़े चार लाख नियोजित शिक्षक परेशान हैं। जबरदस्त परिश्रम के बावजूद वेतन और और अन्य सुविधाओं के मामले में सरकार उनके साथ भेदभाव कर रही है। फलस्वरूप उनका आंदोलन किसी न किसी रूप में बदस्तूर जारी रहता है । बावजूद इसके उन्हें सफलता नहीं मिल रही है ।
इसका सबसे बडा कारण यह है कि नियोजित शिक्षक के लगभग डेढ दर्जन संगठन अस्तित्व में हैं । उन संगठनों के नेतृत्वकर्ता आपसी वर्चस्व और अहम् के कारण सरकार से कम आपस में ही अधिक लड रहे हैं । कोई एक संगठन आंदोलन की शुरुआत करता है तो बाकी सारे मिलकर उस आंदोलन का विरोध करने लगते हैं। शिक्षकों के मुद्दे गौण हो जाते हैं और जो संघर्ष सरकार के विरूद्ध होना चाहिए वह आपस में ही शुरू हो जाता है । लिहाजा आंदोलन ही टांय टांय फुस्स हो जाता है ।
सनद रहे कि वर्ष 2015 में नियोजित शिक्षकों ने पहली बार हड़ताल का हथकंडा अपनाया था । उस वर्ष बिहार पंचायत नगर प्रारंभिक शिक्षक संघ,( पूरण गुट) ने 41 दिनों हड़ताल किया था । जबकि (पप्पू गुट) ने कलमबंद आंदोलन चलाया था । *बिहार* *राज्य* *प्राथमिक* *शिक्षक* *संघ* भी तीन दिनों तक हड़ताल में शामिल था । बावजूद इसके उस वर्ष भी तकरीबन 50 % से 60 % विद्यालय संचालित हो रहे थे । इस वर्ष सबसे पहले पप्पू गुट ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग को लेकर गत 19 अप्रैल 2017 से तालाबंदी तथा हडताल का शंखनाद किया है । जिसे बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ सहित अन्य सात - आठ संगठनों का नैतिक समर्थन प्राप्त है । बावजूद इसके लगभग 90% विद्यालय बदस्तूर संचालित हैं ।जो विद्यालय संचालित हैं उनमें अधिकांश विद्यालयों के प्रधान नियोजित ही हैं।
गौरतलब है प्रदीप कुमार पप्पू के गृह जिला मधेपुरा के सदर प्रखंड में आज एक भी विद्यालय में ताला लटका नहीं मिला ।इस स्थिति का स्पष्ट अर्थ तो यही है कि अब आम शिक्षक विभिन्न संघों का ही बहिष्कार करने लगे हैं। इसके लिए विभिन्न संगठनों के शीर्ष नेतृत्व से लेकर छोटे -बड़े संघीय पदाधिकारीगण खुद जिम्मेदार हैं । क्योंकि वे सफलता का श्रेय लेने के चक्कर में मुद्दों पर कम एक-दूसरे को झूठा साबित करने की फिराक में ज्यादा रहा करते हैं। लिहाजा आम शिक्षकों का भरोसा वे खोते चले जा रहे हैं। तालाबंदी की असफलता भी भरोसा खोने का ही जोरदार संकेत है।
बहरहाल अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि जब मांग समान है तो फिर मंच अलग - अलग क्यों ? क्यों आम शिक्षक अहम् और वर्चस्व की चक्की में पीसे जाएं ? इस सूरत को बदलने के लिए अब आम शिक्षक को गुटबाजी से बाहर आ जाना चाहिए ।आम शिक्षकों को विभिन्न संघों के आह्वान का ही बहिष्कार करना चाहिए । और तबतक करना चाहिए जबतक सभी एक मंच पर न आ जाएं । क्योंकि यह अटल सत्य है कि सभी शिक्षक संघों के एक मंच पर आए बगैर समान काम के लिए समान वेतन नहीं मिल सकता। लिहाजा *समान* *मांग* *केलिए* *एक* *मंच* की आवाज तेज होनी चाहिए ।
*जयहिंद* ... *जयभारत*
इसका सबसे बडा कारण यह है कि नियोजित शिक्षक के लगभग डेढ दर्जन संगठन अस्तित्व में हैं । उन संगठनों के नेतृत्वकर्ता आपसी वर्चस्व और अहम् के कारण सरकार से कम आपस में ही अधिक लड रहे हैं । कोई एक संगठन आंदोलन की शुरुआत करता है तो बाकी सारे मिलकर उस आंदोलन का विरोध करने लगते हैं। शिक्षकों के मुद्दे गौण हो जाते हैं और जो संघर्ष सरकार के विरूद्ध होना चाहिए वह आपस में ही शुरू हो जाता है । लिहाजा आंदोलन ही टांय टांय फुस्स हो जाता है ।
सनद रहे कि वर्ष 2015 में नियोजित शिक्षकों ने पहली बार हड़ताल का हथकंडा अपनाया था । उस वर्ष बिहार पंचायत नगर प्रारंभिक शिक्षक संघ,( पूरण गुट) ने 41 दिनों हड़ताल किया था । जबकि (पप्पू गुट) ने कलमबंद आंदोलन चलाया था । *बिहार* *राज्य* *प्राथमिक* *शिक्षक* *संघ* भी तीन दिनों तक हड़ताल में शामिल था । बावजूद इसके उस वर्ष भी तकरीबन 50 % से 60 % विद्यालय संचालित हो रहे थे । इस वर्ष सबसे पहले पप्पू गुट ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग को लेकर गत 19 अप्रैल 2017 से तालाबंदी तथा हडताल का शंखनाद किया है । जिसे बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ सहित अन्य सात - आठ संगठनों का नैतिक समर्थन प्राप्त है । बावजूद इसके लगभग 90% विद्यालय बदस्तूर संचालित हैं ।जो विद्यालय संचालित हैं उनमें अधिकांश विद्यालयों के प्रधान नियोजित ही हैं।
गौरतलब है प्रदीप कुमार पप्पू के गृह जिला मधेपुरा के सदर प्रखंड में आज एक भी विद्यालय में ताला लटका नहीं मिला ।इस स्थिति का स्पष्ट अर्थ तो यही है कि अब आम शिक्षक विभिन्न संघों का ही बहिष्कार करने लगे हैं। इसके लिए विभिन्न संगठनों के शीर्ष नेतृत्व से लेकर छोटे -बड़े संघीय पदाधिकारीगण खुद जिम्मेदार हैं । क्योंकि वे सफलता का श्रेय लेने के चक्कर में मुद्दों पर कम एक-दूसरे को झूठा साबित करने की फिराक में ज्यादा रहा करते हैं। लिहाजा आम शिक्षकों का भरोसा वे खोते चले जा रहे हैं। तालाबंदी की असफलता भी भरोसा खोने का ही जोरदार संकेत है।
बहरहाल अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि जब मांग समान है तो फिर मंच अलग - अलग क्यों ? क्यों आम शिक्षक अहम् और वर्चस्व की चक्की में पीसे जाएं ? इस सूरत को बदलने के लिए अब आम शिक्षक को गुटबाजी से बाहर आ जाना चाहिए ।आम शिक्षकों को विभिन्न संघों के आह्वान का ही बहिष्कार करना चाहिए । और तबतक करना चाहिए जबतक सभी एक मंच पर न आ जाएं । क्योंकि यह अटल सत्य है कि सभी शिक्षक संघों के एक मंच पर आए बगैर समान काम के लिए समान वेतन नहीं मिल सकता। लिहाजा *समान* *मांग* *केलिए* *एक* *मंच* की आवाज तेज होनी चाहिए ।
*जयहिंद* ... *जयभारत*