बिहार की राजनीति में कभी सवर्ण केंद्रीय भूमिका थे। वे सत्ता के केंद्र में
थे। समाजवादी धारा के संगठनों के प्रभाव बढ़ने और खासकर मंडल राजनीति शुरू
होने के बाद सवर्ण राजनीति की हैसियत बदली।
इसे सत्ता के केंद्र से हटना पड़ा। इसके बाद बिहार की राजनीति में एक दूसरा दौर दिखता है, जिसमें वे सत्ता के केंद्र में तो नहीं रहे, पर सत्ता के इर्द-गिर्द रहे। सवर्ण राजनीति के हिमायती हिस्सों का कहना था कि वे राजा की भूमिका में नहीं हैं, पर चाणक्य की भूमिका में हैं। आज भी ऐसा कहने वाले मिल जाते हैं, पर अब बड़ी संख्या यह महसूस करने लगी है कि वे चाणक्य की भूमिका में भी नहीं हैं। यह राजनीति में उनके लिए तीसरा अध्याय है। तीसरा दौर है, जहां अब उनके पास सत्ता को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली कोई चाबी नहीं है।
श्रीकृष्ण सिंह
पटना कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष और पटना विवि शिक्षक संघ के पूर्व महासचिव प्रो रंधीर सिंह कहते हैं- ‘सवर्ण राजनीति का स्वर्ण काल 1952 से 1967 था। 1952 में लगभग 225 विधायक सवर्ण थे। 28 कायस्थ विधायक थे। आज विधानसभा में उनकी संख्या नगण्य है। 1967 से स्थितियां बदलने लगीं। 1967 से 1985 तक सवर्ण राजनीति का दूसरा दौर था, जब वे सत्ता के केंद्र में नहीं थे, फिर भी उनका प्रभाव था। 1986 में राजीव गांधी ने पंचायतों में अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया। इसका असर पड़ना ही था। इससे दलित राजनीति को बल मिला। इसके बाद मंडल कमीशन लागू होने और फिर प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने के साथ सवर्ण राजनीति का दूसरा चक्र भी पूरा हो गया।’ यह तीसरा दौर है। सवर्ण राजनीति के तीसरे दौर की पुष्टि इस बात से भी होती है कि अब सवर्ण युवा राजनीति में नहीं आना चाहते। जो राजनीति में हैं, किसी पद पर हैं, उन्हें भी अन्य सामाजिक समूहों से समन्वय बना कर चलना होता है। वे जिस दल में हैं, उस दल के प्रमुख सामाजिक आधार का समर्थन उन्हें भी चाहिए। यह हमारे लोकतंत्र और इसमें संख्या के महत्व के कारण जरूरी हो जाता है।
यह तो तय है कि इतिहास का चक्का वापस नहीं हो सकता, पर भिन्न रूपों में क्या सवर्णों की राजनीतिक हैसियत बढ़ सकती है। प्रो रंधीर सिंह कहते हैं-एक संभावना है। महात्मा गांधी वैश्य थे, पर उन्होंने अपने विशिष्ट गुणों के कारण भारत जैसे विविधता वाले देश के हर हिस्से को प्रभावित किया। उसी तरह अगर कोई सवर्ण नेतृत्व विकसित हो, जो सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता हो, तो संभव है राजनीति के केंद्र में सवर्ण सकें। प्रो सिंह जिस संभावना को देख रहे हैं, उसके अलावा भी एक संभावना हो सकती है। वह है सारे सवर्णों का एक मंच पर आना। हालांकि यह निकट भविष्य में संभव नहीं हो सकता, फिर भी संभावना इस तर्क पर बनती है कि जब दर्जनों अतिपिछड़ी जातियां साथ आने का प्रयास कर सकती हैं, तो सवर्ण क्यों नहीं? लेकिन यहां एक बड़ा फर्क यह है कि अतिपिछड़े राजनीति के बिल्कुल हाशिये पर रहे हैं। राजनीति के अलावा वे सामाजिक और आर्थिक रूप से भी निचले पायदान पर हैं, इसलिए उनका एकजुट होने का प्रयास स्वाभाविक है, पर सवर्णों के साथ भिन्न स्थिति है। कुल मिला कर यह देखना रोचक होगा कि सवर्ण राजनीति तीसरे दौर से बाहर निकलने के लिए कौन-सा रास्ता अख्तियार करती है।
इसे सत्ता के केंद्र से हटना पड़ा। इसके बाद बिहार की राजनीति में एक दूसरा दौर दिखता है, जिसमें वे सत्ता के केंद्र में तो नहीं रहे, पर सत्ता के इर्द-गिर्द रहे। सवर्ण राजनीति के हिमायती हिस्सों का कहना था कि वे राजा की भूमिका में नहीं हैं, पर चाणक्य की भूमिका में हैं। आज भी ऐसा कहने वाले मिल जाते हैं, पर अब बड़ी संख्या यह महसूस करने लगी है कि वे चाणक्य की भूमिका में भी नहीं हैं। यह राजनीति में उनके लिए तीसरा अध्याय है। तीसरा दौर है, जहां अब उनके पास सत्ता को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली कोई चाबी नहीं है।
श्रीकृष्ण सिंह
पटना कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष और पटना विवि शिक्षक संघ के पूर्व महासचिव प्रो रंधीर सिंह कहते हैं- ‘सवर्ण राजनीति का स्वर्ण काल 1952 से 1967 था। 1952 में लगभग 225 विधायक सवर्ण थे। 28 कायस्थ विधायक थे। आज विधानसभा में उनकी संख्या नगण्य है। 1967 से स्थितियां बदलने लगीं। 1967 से 1985 तक सवर्ण राजनीति का दूसरा दौर था, जब वे सत्ता के केंद्र में नहीं थे, फिर भी उनका प्रभाव था। 1986 में राजीव गांधी ने पंचायतों में अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया। इसका असर पड़ना ही था। इससे दलित राजनीति को बल मिला। इसके बाद मंडल कमीशन लागू होने और फिर प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने के साथ सवर्ण राजनीति का दूसरा चक्र भी पूरा हो गया।’ यह तीसरा दौर है। सवर्ण राजनीति के तीसरे दौर की पुष्टि इस बात से भी होती है कि अब सवर्ण युवा राजनीति में नहीं आना चाहते। जो राजनीति में हैं, किसी पद पर हैं, उन्हें भी अन्य सामाजिक समूहों से समन्वय बना कर चलना होता है। वे जिस दल में हैं, उस दल के प्रमुख सामाजिक आधार का समर्थन उन्हें भी चाहिए। यह हमारे लोकतंत्र और इसमें संख्या के महत्व के कारण जरूरी हो जाता है।
यह तो तय है कि इतिहास का चक्का वापस नहीं हो सकता, पर भिन्न रूपों में क्या सवर्णों की राजनीतिक हैसियत बढ़ सकती है। प्रो रंधीर सिंह कहते हैं-एक संभावना है। महात्मा गांधी वैश्य थे, पर उन्होंने अपने विशिष्ट गुणों के कारण भारत जैसे विविधता वाले देश के हर हिस्से को प्रभावित किया। उसी तरह अगर कोई सवर्ण नेतृत्व विकसित हो, जो सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता हो, तो संभव है राजनीति के केंद्र में सवर्ण सकें। प्रो सिंह जिस संभावना को देख रहे हैं, उसके अलावा भी एक संभावना हो सकती है। वह है सारे सवर्णों का एक मंच पर आना। हालांकि यह निकट भविष्य में संभव नहीं हो सकता, फिर भी संभावना इस तर्क पर बनती है कि जब दर्जनों अतिपिछड़ी जातियां साथ आने का प्रयास कर सकती हैं, तो सवर्ण क्यों नहीं? लेकिन यहां एक बड़ा फर्क यह है कि अतिपिछड़े राजनीति के बिल्कुल हाशिये पर रहे हैं। राजनीति के अलावा वे सामाजिक और आर्थिक रूप से भी निचले पायदान पर हैं, इसलिए उनका एकजुट होने का प्रयास स्वाभाविक है, पर सवर्णों के साथ भिन्न स्थिति है। कुल मिला कर यह देखना रोचक होगा कि सवर्ण राजनीति तीसरे दौर से बाहर निकलने के लिए कौन-सा रास्ता अख्तियार करती है।