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सजा ऐसी कि फिर सिर न उठा सके कोई शिक्षा माफिया

क्षामाफियाओं के खिलाफ बिहार सरकार जिस कठोरता से कार्रवाई कर रही है, उससे यह लग रहा है कि अब शिक्षा माफियाओं की अब खैर नहीं. पर इन कार्रवाइयों को लेकर कुछ लोगों के दिलो–दिमाग में कुछ शंकाएं भी हैं. कहीं ये कार्रवाइयां बीच में रुकेंगी तो नहीं ! क्या यह तार्किक परिणति तक पहुंच सकेगी ? नियम–कानून मानने वाले लोग तो यही चाहते हैं कि इस बार कार्रवाइयां ऐसी हों ताकि फिर कोई शिक्षा माफिया सिर नहीं उठा सके. 
 
याद रहे कि 1972 और 1996 में तत्कालीन सरकारों ने कदाचार माफियाओं को कुछ समय के लिए पराजित कर दिया था. पर बाद में उन लोगों ने फिर से सिर उठा लिया. वैसे शराबबंदी की तरह ही टॉपर घोटाले को लेकर राज्य सरकार की कार्रवाइयों से कायदे–कानून के पालनकर्ताओं में उम्मीद भी बंधती है. यदि इस बार परीक्षार्थियों की उम्र और घोटालेबाजों की हैसियत और जमात देखे बिना प्रशासनिक कार्रवाई को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया गया तो उसका शिक्षा–परीक्षा पर काफी सकारात्मक असर पड़ेगा. 
 
अगली पीढ़ियां भी इस सरकार की शुक्रगुजार रहेंगी. दरअसल सवाल अगली पीढ़ियों के भविष्य का अधिक है.  अपवादों को छोड़ दें तो परीक्षाओं में कदाचार सर्वव्यापी है. आज कौन सी परीक्षा है, जिसमें कदाचार का बोलबाला नहीं है? सामान्य परीक्षाओं की बात कौन कहे, मेडिकल और इंजीनियरिंग परीक्षाओं की पवित्रता भी आये दिन भंग हो रही है. इन तकनीकी संस्थानों की परीक्षाओं में चोरी तो जानलेवा है, जो संबंधित लोग मेडिकल और इंजीनियरिंग छात्रों को कदाचार करने की छूट देते हैं, वे परोक्ष रूप से हत्या के अपराधी हैं. 
 
अयोग्य डाॅक्टर इलाज क्या करेगा ! वह मरीजों की जान ही तो लेगा ! 
 
जरूरी है कदाचार के पिछले मर्ज की पहचान : कदाचार के मामले में 1972 और 1996 के अनुभवों से बिहार सरकार सबक सीख सकती है. खासकर कदाचार की पुनरावृत्ति की आशंका को लेकर. 1972 में तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए परीक्षाओं में पहले से जारी भीषण कदाचार पर पूरी तरह रोक लगा दी थी. 
 
इस काम में एन नागमणि और भास्कर बनर्जी जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ आइएएस अफसरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. पर, 1972 के बाद एक बार फिर कदाचार क्यों शुरू हो गया ? इसकी पड़ताल से इसकी पुनरावृत्ति को रोकने में मदद मिल सकती है. पता चल सकता है कि केदार पांडेय, नागमणि और भास्कर बनर्जी की कोशिश पर बाद में पानी फेरने वाली शक्तियां कौन सी थीं .
 
उनसे आगे कैसे निबटना है : 1972 के बाद एक बार फिर जब अधिकतर परीक्षाओं ने कदाचार तेज कर दिया तो पटना हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी. हाइकोर्ट ने कारगर कदम उठाया. अदालत ने जिलों के कलक्टरों और जिला जजों को यह निदेश दिया कि वे कदाचार रोकने के लिए कारगर कदम उठाएं. हाइकोर्ट और जिला जज के भय से सभी जिलों के डीएम और एसपी ने भी कमर कस ली. नतीजतन कदाचार व शिक्षा माफिया प्रभावहीन हो गये. 1996 में मैट्रिक में करीब 12 प्रतिशत परीक्षार्थी ही पास हो सके. 
 
इंटर का रिजल्ट करीब 17 प्रतिशत रहा. तत्कालीन शिक्षा मंत्री जयप्रकाश नारायण यादव ने मीडिया को बताया कि परीक्षार्थियों की मेधा का यही सही आकलन है. पर सवाल है कि दुबारा कदाचार माफिया कैसे सक्रिय होने लगे. किनकी शह मिली? समय के साथ परीक्षाओं की पवित्रता पूरी तरह नष्ट हो गयी. दरअसल शासन की ओर से ही उन्हें छूट मिल गयी. 1996 में जब मैट्रिक और इंटर की परीक्षाओं से बहुत कम छात्र ही पास होकर निकले तो अधिकतर काॅलेजों में नामांकन के लिए छात्र नहीं मिले. काॅलेज खोल कर शिक्षा का व्यापार करने वाले अनेक प्रभावशाली लोगों ने राज्य सरकार पर दबाव डाला. कदाचार की छूट ले ली. याद रहे कि शिक्षा के ऐसे व्यापारी वोट के भी सौदागर हुआ करते हैं. 
 
ताजा टॉपर घोटाले के सामने आने के बाद अब उम्मीद तो यही की जा रही है कि ऐसे शिक्षा माफियाओं को एक बार फिर कदाचार की छूट नहीं मिलेगी. उम्मीद की जाती है कि कदाचार को पूरी तरह रोक देने के लिए अब सत्ताधारी दलों के बड़े नेतागण भी तत्पर होंगे. यदि ऐसा हुआ तो वह बिहार के लिए शुभ संकेत होगा. 
 
इसकी निगरानी राज्य सरकार को लगातार करनी होगी. साथ ही इस बार पकड़ में आए अफसरों और शिक्षा माफियाओं को त्वरित सुनवाई करवा कर एक साल के भीतर कड़ी सजा दिलवानी पड़ेगी. अपराध के अनुपात में तौल कर सजा मिलेगी तो अन्य कदाचारपक्षी और शिक्षा माफियागण भी सहम जायेंगे.
 
यदि 1996 की तरह एक बार फिर परीक्षाएं होने लगें तो राज्य की छवि बेहतर होगी और सभी क्षेत्रों में योग्य उम्मीदवार मिलेंगे. क्या इससे बड़ा और कोई काम हो सकता है? यदि यह काम हुआ तो देश के अन्य हिस्सों में फैले कदाचार माफियाओं के खिलाफ भी उचित कार्रवाई करने की प्रेरणा वहां की सरकारों को मिलेगी.
 
नेता नये, समस्या पुरानी : असम में जब दो पराजित विधायकों ने सरकारी आवास छोड़ा तो पता चला कि उन आवासों से पांच एसी गायब थे. पराजित विधायकों ने एसी के बारे में संबंधित विभाग को कोई सूचना नहीं दी थी. हालांकि बाद में शासन को पता चल गया कि एसी आखिर कहां गये . यह कोई नयी समस्या नहीं है. न ही किसी एक राज्य तक सीमित है. बिहार के एक नेता तो आवास छोड़ते समय पानी टंकी भी अपने निजी आवास में लेते गये.
 
इसी राज्य के एक राज्यपाल राज भवन की कालीन ले गये थे. बाद में कालीन वापस लायी गयी. पर बिहार के एक प्रगतिशील विधायक की कहानी तो अजीब है. प्रगतिशील विधायक जब हारे तो वह सरकारी आवास एक दूसरे प्रगतिशील विधायक को ही अलॉट हुआ. जब मैं उस दूसरे विधायक के आवास पर गया तो देखा कि वे मकान की भारी मरम्मत के काम में लगे हुए थे.पूछने पर उन्होंने बताया कि पिछले निवासी ईंट और चौखट–किवाड़ छोड़कर सब कुछ अपने साथ ले गये. यह बात थोड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण जरुर थी. पर,सरसरी नजर से देखने से ही लग जाता था कि बहुत सारे सामान गायब थे. दरअसल यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का खर्च है जो इस देश की गरीब जनता उठाती रही है.
 
और अंत में : नब्बे के दशक की बात है. पटना के एक प्रतिष्ठित हाइस्कूल के प्रधानाध्यापक का हस्तलिखित आवेदन पत्र मैंने देखा था. एक लाइन भी शुद्ध नहीं थी. उन्हीं वर्षों कालेजों में बड़े पैमाने पर शिक्षकों की बहाली हुई. एक नवनियुक्त काॅलेज शिक्षक ने प्राचार्य को आवेदन लिखा. उसने लिखा कि चूंकि मेरे स्टॉमक में हेडेक है, इसलिए मुझे छुट्टी दी जाये. 
 

तीसरा उदाहरण तथाकथित टॉपर की है. रूबी के अनुसार प्रोडिकल साइंस में खाना बनाने की शिक्षा दी जाती है. डॉ राजेंद्र प्रसाद और वशिष्ठ नारायण सिंह के इस राज्य में ऐसे दिन लाने वाले नेताओं और अफसरों के साथ कैसा सलूक होना चाहिए ?
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