सुपौल। प्रखंड सहित संपूर्ण अनुमंडल क्षेत्र में हो रही बाल मजदूरी
बालश्रम अधिनियम को मुंह चिढ़ा रहा है। गरीबी व आर्थिक तंगी के कारण कच्ची
उम्र में ही ऐसे बच्चे बालश्रम की भट्ठी में झोंके जा रहे हैं जिनके भरण
पोषण का जरिया कुछ और नहीं।
परिवार के मुखिया काम काज की तलाश में या तो बाहरी प्रदेश गये बताए जाते हैं या फिर उपर का साया ही उठ चुका होता है। चंद मामले ऐसे भी जिन्हें किसी का सहारा नहीं मिला या फिर परिस्थितिवश कच्ची उम्र में ही परिवार का बोझ ढोने की लाचारी सिर पर आन पड़ी। ऐसे बच्चों को देख सहज ही शिक्षा के मौलिक अधिकार
अधिनियम की याद ताजा हो जाती है। छह साल हुए जब इस अधिनियम को लागू किया गया। विद्यालयों में शैक्षिक माहौल हो इसके लिए शिक्षकों की कमी दूर करने के लिए नियोजन प्रक्रिया अपनायी गयी। वहीं संसाधन जुटाने की गरज से जगह जगह नवसृजित विद्यालय खोल अतिरिक्त वर्ग कक्ष निर्माण पर करोड़ों की राशि खर्च की गयी। इतना ही नहीं विद्यालयों में छात्रोपस्थिति बेहतर हो इसके लिए मध्यान्ह भोजन योजना का संचालन सहित पोशाक राशि एवं छात्रवृति योजना चलायी गयी। लेकिन विडंबना देखिये कि शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिये जाने के बाद भी बालश्रम में दिनानुदिन इजाफा हो रहा है।
- यहा मिलता बच्चों को काम
बाबुओं के घरों में निजी नौकर के तौर पर बच्चों से काम लिए जाने की
परंपरा पुराने जमाने से चल रही है। सो आज भी कई घरों में रसोईया अथवा निजी नौकर के तौर पर ऐसे बच्चों से काम लिया जाता है। सबसे
विकट स्थिति बाजार क्षेत्र में देखने को मिलती है। यहा चाय की दुकान से
लेकर ढाबा या फिर फास्ट फूड के रेहड़ियों के साथ काम में लगे नन्हें
बच्चों को सहज ही देखा जा सकता है। या फिर प्रमाणिकता ढूढनी हो तो
फिर होटलों में चले जाईये जहा छोटे छोटे बच्चे हाथ के फफोलों की परवाह किये बिना प्लेट धोते मिल जाएंगे।
- मामूली वेतन के साथ सुननी पड़ती है गालिया
ग्राहक यदि भोजन में लीन हों और पानी में देने में अथवा खाकर उठने
के बाद जुठन उठाने में विलंब हुआ तो मालिक की त्योरी चढ़ जाती है। अन्य काम छोड़कर यदि शीघ्र उक्त कार्य को नहीं निबटाया गया तो किसकी गाली पड़ेगी..। अब इन प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी गरीबी से होंठ सिले बच्चे चुपचाप सहते रहते हैं। 31 मार्च से पहले की स्थिति पर गौर करें तो मासाहारी होटलों में सरेआम चलते जाम का असर भी इन बच्चों के जीवन को प्रभावित करता रहा। दुकानों से शराब लाकर ग्राहकों के नखरे उठाना इनके कर्तव्य में शामिल हुआ करता था। ऐसी परिस्थितियों में कई बच्चे नशा के आदी भी हो गये। वह तो भला हो उस कठोर निर्णय का जो शराब बंदी के नाम पर लागू हुआ। होटल बंद होने
के बाद भी इनकी तकलीफ कम नहीं होती। जिस टेबुल पर दिन भर जूठन उठाने के बोझ तले दबे रहे उसी पर मैले कुचैले गुदरी में लिपट कर सो लिए और फि र सूरज की लालिमा के साथ उठे तो देर रात तक जिंदगी के जद्दोजहद में जुट गये। काम के नाम पर दाम की बात करें तो एक हजार से 15 सौ के मामूली माहवारी पर इन बच्चों का जीवन खपता है और महीना लगते ही परिवार के आश्रित उसके तनख्वाह ले घर को रवाना हो जाते हैं।
- मुआयना के नाम पर खानापूरी
हालात पर गौर करें तो प्रखंड में लेबर इंस्पेक्टर का पद रिक्त है और
त्रिवेणीगंज के इंस्पेक्टर ही संपूर्ण अनुमंडल के प्रभार में हैं। इनकी
मानें तो इन दो प्रखंडों के अलावा भी इन्हें अन्य प्रखंडों का अतिरिक्त
प्रभार है। सो कागजी खानापूर्ति में ही इनका समय व्यतीत हो जाता है। दूसरी ओर कभी समय निकला या फिर बढ़ते विभागीय दबाव के बाद यदि दो चार
माह में मुआयने की गुंजाईश बनी तो एकाध दुकानों के जाच के बाद एक
जगह बैठकर मामला तय हो गया। सबसे अहम बात यह कि मुआयना को औचक निरीक्षण का नाम तो दिया जाता है लेकिन आगमन से पूर्व ही संबंधितों को साहब के आने की खबर मिल जाती है।
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परिवार के मुखिया काम काज की तलाश में या तो बाहरी प्रदेश गये बताए जाते हैं या फिर उपर का साया ही उठ चुका होता है। चंद मामले ऐसे भी जिन्हें किसी का सहारा नहीं मिला या फिर परिस्थितिवश कच्ची उम्र में ही परिवार का बोझ ढोने की लाचारी सिर पर आन पड़ी। ऐसे बच्चों को देख सहज ही शिक्षा के मौलिक अधिकार
अधिनियम की याद ताजा हो जाती है। छह साल हुए जब इस अधिनियम को लागू किया गया। विद्यालयों में शैक्षिक माहौल हो इसके लिए शिक्षकों की कमी दूर करने के लिए नियोजन प्रक्रिया अपनायी गयी। वहीं संसाधन जुटाने की गरज से जगह जगह नवसृजित विद्यालय खोल अतिरिक्त वर्ग कक्ष निर्माण पर करोड़ों की राशि खर्च की गयी। इतना ही नहीं विद्यालयों में छात्रोपस्थिति बेहतर हो इसके लिए मध्यान्ह भोजन योजना का संचालन सहित पोशाक राशि एवं छात्रवृति योजना चलायी गयी। लेकिन विडंबना देखिये कि शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिये जाने के बाद भी बालश्रम में दिनानुदिन इजाफा हो रहा है।
- यहा मिलता बच्चों को काम
बाबुओं के घरों में निजी नौकर के तौर पर बच्चों से काम लिए जाने की
परंपरा पुराने जमाने से चल रही है। सो आज भी कई घरों में रसोईया अथवा निजी नौकर के तौर पर ऐसे बच्चों से काम लिया जाता है। सबसे
विकट स्थिति बाजार क्षेत्र में देखने को मिलती है। यहा चाय की दुकान से
लेकर ढाबा या फिर फास्ट फूड के रेहड़ियों के साथ काम में लगे नन्हें
बच्चों को सहज ही देखा जा सकता है। या फिर प्रमाणिकता ढूढनी हो तो
फिर होटलों में चले जाईये जहा छोटे छोटे बच्चे हाथ के फफोलों की परवाह किये बिना प्लेट धोते मिल जाएंगे।
- मामूली वेतन के साथ सुननी पड़ती है गालिया
ग्राहक यदि भोजन में लीन हों और पानी में देने में अथवा खाकर उठने
के बाद जुठन उठाने में विलंब हुआ तो मालिक की त्योरी चढ़ जाती है। अन्य काम छोड़कर यदि शीघ्र उक्त कार्य को नहीं निबटाया गया तो किसकी गाली पड़ेगी..। अब इन प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी गरीबी से होंठ सिले बच्चे चुपचाप सहते रहते हैं। 31 मार्च से पहले की स्थिति पर गौर करें तो मासाहारी होटलों में सरेआम चलते जाम का असर भी इन बच्चों के जीवन को प्रभावित करता रहा। दुकानों से शराब लाकर ग्राहकों के नखरे उठाना इनके कर्तव्य में शामिल हुआ करता था। ऐसी परिस्थितियों में कई बच्चे नशा के आदी भी हो गये। वह तो भला हो उस कठोर निर्णय का जो शराब बंदी के नाम पर लागू हुआ। होटल बंद होने
के बाद भी इनकी तकलीफ कम नहीं होती। जिस टेबुल पर दिन भर जूठन उठाने के बोझ तले दबे रहे उसी पर मैले कुचैले गुदरी में लिपट कर सो लिए और फि र सूरज की लालिमा के साथ उठे तो देर रात तक जिंदगी के जद्दोजहद में जुट गये। काम के नाम पर दाम की बात करें तो एक हजार से 15 सौ के मामूली माहवारी पर इन बच्चों का जीवन खपता है और महीना लगते ही परिवार के आश्रित उसके तनख्वाह ले घर को रवाना हो जाते हैं।
- मुआयना के नाम पर खानापूरी
हालात पर गौर करें तो प्रखंड में लेबर इंस्पेक्टर का पद रिक्त है और
त्रिवेणीगंज के इंस्पेक्टर ही संपूर्ण अनुमंडल के प्रभार में हैं। इनकी
मानें तो इन दो प्रखंडों के अलावा भी इन्हें अन्य प्रखंडों का अतिरिक्त
प्रभार है। सो कागजी खानापूर्ति में ही इनका समय व्यतीत हो जाता है। दूसरी ओर कभी समय निकला या फिर बढ़ते विभागीय दबाव के बाद यदि दो चार
माह में मुआयने की गुंजाईश बनी तो एकाध दुकानों के जाच के बाद एक
जगह बैठकर मामला तय हो गया। सबसे अहम बात यह कि मुआयना को औचक निरीक्षण का नाम तो दिया जाता है लेकिन आगमन से पूर्व ही संबंधितों को साहब के आने की खबर मिल जाती है।
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