बिहार : विवादों से परे क्यों नहीं होती बहाली

 ऐसे राज्य गिनती के हैं, जहां बहाली की प्रक्रिया बिना किसी रुकावट, अदालत की अड़ंगेबाजी और आरोप-प्रत्यारोप के कारण निबट जाती है।

 इस तरह की दुारियां का सामना बिहार, उत्तर प्रदेश और एकाधिक हिंदी भाषी प्रदेशों में ज्यादा देखने को मिलता है।

ताजा प्रकरण बिहार से जुड़ा है, जहां शिक्षक बहाली को लेकर एक बार फिर हंगामा बरपा हुआ है। शिक्षक अभ्यर्थियों द्वारा लगातार धरना-प्रदशर्न हो रहे हैं। अभ्यर्थियों के प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस बल प्रयोग भी कर रही है। वहीं इस मसले को विपक्ष अपने फायदे की सोच रहा है, लिहाजा उसकी सक्रियता भी काबिलेगौर है। हालांकि जब विपक्ष का एक धड़ा सरकार में शामिल था, तब किसी को शिक्षा में सुधार करने की बात जेहन में नहीं आई थी। विवाद का ताजातरीन विषय है सरकार का वह फैसला जिसमें बाहरी राज्यों के युवा भी भर्ती के लिए अप्लाई कर सकते हैं। गत 27 जून को हुई कैबिनेट की बैठक में शिक्षक भर्ती नियमावली में संशोधन (अन्य पात्रता मानदंडों को पूरा करने वाला देश का कोई भी नागरिक बिहार में सरकारी शिक्षक की नौकरी के लिए आवेदन कर सकता है) किया गया।  इससे पहले बिहार के सरकारी स्कूलों में शिक्षक के रूप में केवल बिहार के निवासियों को ही भर्ती करने का प्रावधान था। स्वाभाविक है, इसके बाद राज्य के शिक्षक अभ्यर्थियों में उबाल आ गया है। उनका आरोप है कि बिहार में बेरोजगारी अधिक है और रोजगार के अवसर बहुत कम।

ऐसी स्थिति में डोमिसाइल नीति की अवहेलना से यहां के अभ्यर्थियों के अवसर प्रभावित होंगे। खासकर एक वर्ग को लगता है कि आवंटित कोटे में हकमारी होगी। साथ ही नियोजित शिक्षक भी इसी भर्ती में शामिल होंगे। यानी राज्य के बेरोजगारों के अवसर में बड़ी कटौती होगी। सर्वविदित है कि बहाली एक नियमित प्रक्रिया है। इससे नागरिकों को रोजगार मिलते हैं और सरकार को तंत्र संचालन और विकास के लिए कर्मी। सरकार और जनता दोनों का कार्य-प्रवाह जारी रहता है। शिक्षक बहाली प्रक्रिया में डोमिसाइल प्रतिबंध को हटाने का ‘निहितार्थ’ चाहे जो हो लेकिन इसके कारण उत्पन्न खाई को पाटना जरूरी है। इस तल्ख सचाई से कौन इनकार करेगा कि बिहार में कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र को मिलाकर रोजगार के अवसर बहुत कम हैं, लेकिन यह भी कड़वा सच है कि बड़ी संख्या में बिहार के लोग दूसरे राज्यों में नौकरी करते हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राज्य के बेरोजगार विशेषकर एसटीईटी पास योग्य लाभार्थियों और नियोजित शिक्षकों सहित शिक्षा व्यवस्था को तत्काल पटरी पर लाने के प्रयास ज्यादा गंभीरता से करने होंगे।

नीतीश सरकार को 12 दिन के भीतर 9 बार नियमावली में संशोधन क्यों करना पड़ा? साथ ही विज्ञापन प्रकाशित होने के महीने-भर बाद सरकार आवासीय (डोमिसाइल) मुद्दे पर छूट क्यों देना पड़ा, यह भी बताना चाहिए। दरअसल, नीतीश कुमार से इस तरह की गलती की अपेक्षा नहीं की जा सकती। केंद्र में मंत्री रहते हुए उनके काम की अभी भी प्रशंसा होती है। राज्य के मुखिया के तौर पर भी उन्होंने नौकरियों में आने वाली बेवजह की बाधाओं और औपचारिकताओं को खत्म किया है। सो, उनसे यह उम्मीद थी कि युवाओं को हर वर्ष लाखों नौकरियों का उनकी सरकार ने जो वादा किया था, उसमें वह सौ फीसद खरा उतरेगी। मगर अफसोस कि ऐसा न हो सका।

बहरहाल, अब भी वक्त है। सरकार को अपने उन निर्णयों पर पुनर्विचार करना चाहिए जिसके चलते बेरोजगार युवकों और उनके परिजनों में भ्रम की स्थिति बनी। यह काम वह कर सकते हैं, ऐसी अपेक्षा उनसे है। अलबत्ता, उनके पल-पल बदलते फैसलों से लोग खफा हैं और इसी का फायदा भाजपा और अन्य पार्टियां उठाने की जुगत में हैं। यहां तक कि सरकार में शामिल भाकपा (माले) भी सरकार के फैसले से इत्तेफाक नहीं रखती है। जबकि कुछ दिनों पहले ही बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के जरिए एक लाख 70 हजार शिक्षकों की भर्ती का नोटिफिकेशन जारी किए जाने को विभिन्न शिक्षक संगठनों और अभ्यर्थियों ने बड़ी राहत करार दिया था।

जाहिर है, नीतीश सरकार को इस मामले में आशंकित नुकसान की भरपाई की कोशिशें तेज करनी होगी। उन्हें अपने इस फैसले पर फिर से विचार-विमर्श करने की जरूरत है, जिससे राज्य के युवाओं में निराशा और आक्रोश समाप्त हो। राज्य के मुखिया इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव और उसके कुछ ही महीने बाद विधानसभा चुनाव में जनता उनके खिलाफ न हो जाए। लिहाजा, उन्हें बहाली की प्रक्रिया को विवादों से परे और भरोसेमंद बनाना होगा। उन्हें अपनी जिद को भी परे रखना होगा। तभी उनकी सुशासन की छवि मजबूत होगी। विरोधियों को बैठे-बिठाए मौका देना उनकी राजनीतिक भूल साबित हो सकती है। अपनी सियासी पिच को धार देने के चक्कर में अगर युवाओं का अहित हो जाए तो यह कहीं से भी अच्छा फैसला नहीं माना जा सकता है। नीतीश मंझे हुए खिलाड़ी हैं और उम्मीद है कि वह सभी के हितों के बारे में संवेदनशील होंगे। उम्मीद है कि वह कुछ ऐसा करेंगे जिससे ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’

डॉ. भीम सिंह भवेश

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