बिहार
के नियोजित शिक्षक पहले से ही 32 तरह के काम में व्यस्त थे. जाहिर है
बच्चों को पढ़ाना केवल एक काम गिना जाएगा. शिक्षक पढ़ाने के लिए ही हुआ
करते थे, कालांतर में उनकी भूमिका बदलती गई.
यहां तक कि जिस देश में लाखों युवा बेरोजगार घूम रहे हों, वहां खुले में शौच से पूर्ण मुक्ति के लिए शिक्षकों को अजीबोगरीब फरमान दे दिया गया. शिक्षक के साथ ऐसे अपमानजनक व्यवहार से बुरा और क्या हो सकता है भला.
वैसे यह मुद्दा कोई बहुत नया नहीं है. बहुत पहले से शिक्षकों के जनगणना में डयूटी लगाए जाने सहित कई तरह के गैर शैक्षणिक कार्यों के कार्टून अखबारों में बनते-छपते रहे हैं. इसमें नया यह है कि इस बात को भी अब नापा-तौला जाएगा कि एक समाज में शिक्षक की हैसियत क्या है और उसकी छवि को समाज में किस तरह से गढ़ा जा रहा है. इसमें सबसे बड़ी विडंबना यही है कि नीतिगत रूप से उसकी भूमिका शिक्षक से ज्यादा प्रबंधन की मानी जाने लगी है, ठीक अखबारों के संपादकों जैसी.
यह भी पढ़ें: राहुल-तेजस्वी के लंच पर इतना हंगामा है क्यों बरपा?
अभी हाल ही में एक सर्वेक्षण के नतीजे घोषित किए गए हैं. मध्यप्रदेश में एक
गैर सरकारी संस्था चाइल्ड राइट्स आब्र्जेटरी ने शिक्षकों के गैर शैक्षणिक
कार्यों पर एक अध्ययन किया है. इस अध्ययन में 14 जिले के 100 प्राथमिक और
माध्यमिक स्कूलों को शामिल किया गया है. अध्ययन की मानें तो 32 प्रतिशत से
ज्यादा शिक्षक एक माह से दो माह की अवधि तक गैर शैक्षणिक कार्यों में
संलग्न रहे. समग्र आईडी बनाने में 44 प्रतिशत, आधार कार्ड के सत्यापन में
19 प्रतिशत, वोटर कार्ड बनाने में 18 प्रतिशत, सर्वशिक्षा अभियान के काम
में 7 प्रतिशत और 7 प्रतिशत शिक्षक अन्य तरह के गैर शैक्षणिक कार्यों में
लगे रहे.
यह भी पढ़ें:मूड बदलने में कितना काम आएगी मूडी
इसी राज्य में बच्चों की आवाज नामक शीर्षक से मध्यप्रदेश के 10 जिलों में
एक सर्वेक्षण किया गया है. इसमें तीन प्रतिशत बच्चों ने बताया है कि उन्हें
पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं हैं, आठ प्रतिशत बच्चों को सिंगल टीचर
पढ़ाते हैं, जबकि 25 प्रतिशत बच्चों को दो शिक्षक पढ़ाते हैं. शिक्षा का
अधिकार कानून लागू होने के दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट की ने पूर्व मुख्य
न्यायधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी ने
बताया था कि देश के एक लाख से ज्यादा स्कूलों में एक ही शिक्षक से काम
चलाया जा रहा है. उस वक्त देश में 5.86 लाख शिक्षकों के पद रिक्त हैं. कहा
गया था कि शिक्षा के अधिकार कानून लागू होने के बाद बदले गए मापदंडों से यह
संख्या और बढ़ने वाली है. और देखिए पिछले संसद सत्र में यह लिखित जानकारी
दी गई है कि स्वीकृत पदों के विरुद्ध 9 लाख पद खाली हैं.
यह भी पढ़ें:जीएसटी की भी थ्योरियां बदलने लगीं...
जेएस वर्मा समिति ने यह भी बताया था कि देश के 10 लाख सरकारी स्कूलों में
तकरीबन 46 लाख शिक्षक में से 13 प्रतिशत शिक्षक संविदा पर हैं. यह प्रतिशत
2012 के बाद इसलिए और बढ़ा क्योंकि अध्यापक या शिक्षकों की सीधी भर्ती की
जगह पैराटीचर्स की नियुक्ति की नीति ही अपनाई गई है, अधिक से अधिक पैरा
टीचर्स को अध्यापक या शिक्षक कैडर में पदोन्नत कर दिया गया. इस नीति ने
शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जो लोग पहले
शिक्षक कैडर में ससम्मान जाने के लिए पूरा जोर लगाते थे, उनकी प्राथमिकताएं
दूसरी नौकरियों की ओर चली गई, क्योंकि पैरा शिक्षकों का वेतन और दूसरी
सुविधाएं अनुकूल नहीं थीं.
यहां तक कि जिस देश में लाखों युवा बेरोजगार घूम रहे हों, वहां खुले में शौच से पूर्ण मुक्ति के लिए शिक्षकों को अजीबोगरीब फरमान दे दिया गया. शिक्षक के साथ ऐसे अपमानजनक व्यवहार से बुरा और क्या हो सकता है भला.
वैसे यह मुद्दा कोई बहुत नया नहीं है. बहुत पहले से शिक्षकों के जनगणना में डयूटी लगाए जाने सहित कई तरह के गैर शैक्षणिक कार्यों के कार्टून अखबारों में बनते-छपते रहे हैं. इसमें नया यह है कि इस बात को भी अब नापा-तौला जाएगा कि एक समाज में शिक्षक की हैसियत क्या है और उसकी छवि को समाज में किस तरह से गढ़ा जा रहा है. इसमें सबसे बड़ी विडंबना यही है कि नीतिगत रूप से उसकी भूमिका शिक्षक से ज्यादा प्रबंधन की मानी जाने लगी है, ठीक अखबारों के संपादकों जैसी.
यह भी पढ़ें: राहुल-तेजस्वी के लंच पर इतना हंगामा है क्यों बरपा?
यह भी पढ़ें:मूड बदलने में कितना काम आएगी मूडी
यह भी पढ़ें:जीएसटी की भी थ्योरियां बदलने लगीं...