जयप्रकाश नारायण ने 14 जून, 1974 को बिहार विधानसभा के स्पीकर हरिनाथ
मिश्र को एक पत्र लिखा था. आंदोलन के नेता ने लिखा था कि ‘विधानसभा के
सामने छात्रों के सत्याग्रह के सिलसिले में कुुछ विधायकों के साथ
दुर्व्यवहार और उनके खिलाफ भद्दे नारे लगाये जाने की सूचना मुझे मिली है.
रिपोर्ट परस्पर विरोधी है. पर यह लगता है कि कुछ भद्दे नारे तो
सत्याग्रहियों ने भी दुहराये.
पर कुर्ता फाड़ना, रिक्शे से नीचे खींचना आदि दुष्कृत्य दर्शकों में
से ही कुछ लोगों ने किये. पर चाहे जिन लोगों ने ऐसा किया हो, मुझे घटना के
लिए बहुत खेद है. जिन विधायकों के साथ दुर्व्यवहार हुआ, उनके प्रति मैं
क्षमाप्रार्थी हूं. आप मेरी यह भावना उन सभी विधायकों तक पहुंचा दें और
मेरा यह पत्र विधानसभा में पढ़कर सुना देने की कृपा करें. मैं आभार
मानूंगा.’ इस पत्र को आज के संदर्भ में देखें.
बुधवार को पटना के वीरचंद पटेल पथ पर जो कुछ हुआ, उससे जेपी की आत्मा
कराह रही होगी. इसलिए भी क्योंकि राजद और भाजपा के आज के शीर्ष नेतागण 1974
के उस आंदोलन में सक्रिय थे. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि क्या आप राजनीति
के सतयुग की बात आज के ‘कलियुग’ में लेकर बैठ गये! पर राजनीति के ‘कलियुग’
का भी एक उदाहरण यहां पेश है. नब्बे के दशक की बात है. सीबीआइ चारा घोटाले
की जांच कर रही थी. सीबीआइ के संयुक्त निदेशक डॉ यूएन विश्वास के खिलाफ
राजद ने पटना राजभवन के सामने तलवार जुलूस निकाला था. विश्वास के पुतले को
तलवार से काटा गया था.
पर क्या ऐसे प्रदर्शन से राजद को कोई लाभ मिला? न तो कानूनी लाभ मिला
और न ही राजनीतिक लाभ. चारा घोटाले के केस में क्या हो रहा है, यह सबको
मालूम है. साथ ही जिस लालू प्रसाद ने अपने बल पर 1995 के चुनाव में
विधानसभा में पूर्ण बहुमत लाया था, उनके दल ने सन 2000 के चुनाव में अपना
वह बहुमत भी खो दिया. कांग्रेस की मदद से ही राबड़ी देवी की सरकार 2000 में
बन सकी थी. मंगलवार को आयकर महकमे ने लालू प्रसाद से जुड़े लोगों के
ठिकानों पर छापे मारे. इस लोकतांत्रिक देश में अच्छा तो यह होता कि राजद के
लोग उसका मुकाबला कानूनी तरीके से ही करते. लाठी-डंडे के साथ प्रतिबंधित
क्षेत्र में शक्ति प्रदर्शन से आखिर क्या लाभ मिलने वाला है?
उल्टे नुकसान भी हो सकता है. क्योंकि अदालत और जांच एजेंसियों से
जुड़े लोग भी तो मीडिया देखते-पढ़ते हैं. उन पर इसका क्या असर पड़ेगा? उधर,
भाजपा के लोगों ने भी बुधवार को राजद के प्रदर्शनकारियों के मुकाबले के
सिलसिले में कोई आदर्श उपस्थित नहीं किया. जेपी आंदोलन में यही लोग यह नारा
लगा रहे थे कि ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा.’ पर पटेल पथ
पर कुछ भाजपाइयों के हाथों में भी लाठियां और पत्थर देखे गये थे. बिहार का
सुशासन एक बार फिर कसौटी पर है. पटेल पथ पर अशोभनीय और हिंसक दृश्य
उपस्थित करने वाले उपद्रवियों पर कार्रवाई करनी होगी चाहे वे जिस किसी
पक्ष के हों. हालांकि यह बात छिपी नहीं रही कि पहल तो राजद से जुड़े लोगों
ने ही की थी.
हिंसक राजनीति की प्रयोगशाला का हाल
पश्चिम बंगाल हिंसक राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. सन 1967 में
नक्सलबाड़ी से हिंसक आंदोलन शुरू हुआ. उसे तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ
शंकर राय की सरकार ने पुलिस और बाहुबलियों के बल पर कुचला. 1977 में
कांग्रेस चुनाव हार गयी. सत्ता में आये वाम मोरचा सरकार ने पहले तो अपने
कुछ गरीबपक्षी कामों से जनता का समर्थन पाया. पर बाद के दिनों में उसने भी
जोर जबर्दस्ती से राज चलाया. राय सरकार के दौर के अनेक बाहुबली वाम में
शामिल हो गये थे.
ममता बनर्जी ने उनकी हिंसा का विरोध करके सत्ता पायी. पर अब वैसा ही
आरोप बनर्जी सरकार पर भी लग रहा है. ममता सरकार पर तो मुसलिम अतिवादियों
के तुष्टिकरण का भी आरोप लग रहा है. नतीजतन वहां भाजपा बढ़ रही है. देखना
है कि ‘दीदीगिरी’ कब तक चलती है. बाहुबल और जातीय-सांप्रदायिक वोट बैंक के
जरिये चुनाव जीतने के बदले लोकतंत्र में लोगों का दिल जीतना अधिक लाभदायक
तरीका है.
कैसे मिलें योग्य शिक्षक! : मंगलवार को पटना में बिहार के कुलपतियों
का सम्मेलन हुआ. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गरिमा को पुन:स्थापित करने
की जरूरत बतायी गयी. पर सवाल है कि इस काम की शुरुआत कहां से हो? मुझे कम
से कम एक बात समझ में आती है. विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पहले
ऐसे शिक्षक तो बहाल हों जिन्हें अपने विषय का ज्ञान हो. खबर आती रहती है कि
सब तो नहीं, पर अधिकतर शिक्षक अयोग्य हैं.
हाल में एक वीसी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि पटना विश्वविद्यालय के एक
प्रतिष्ठित काॅलेज में ऐसे शिक्षक भी आ गये हैं जिन्हें ‘प्रिंसिपल’
शब्द तक लिखना नहीं आता. नब्बे के दशक में एक खबर आयी थी कि एक काॅलेज
शिक्षक ने छुट्टी के आवेदन पत्र में लिखा कि ‘मेरे स्टाॅमक में हेडेक है.’
उन्हीं दिनों मैंने पटना के एक प्रतिष्ठित हाइस्कूल के प्राचार्य का
हस्तलिखित आवेदन पत्र पढ़ा था. दस लाइन के आवेदन में कोई भी एक लाइन
शुद्ध नहीं थी. इस पृष्ठभूमि में मौजूदा शिक्षकों की प्रतिभा-योग्यता की
टुकड़ों में बारी-बारी से जांच होनी चाहिए. क्योंकि थोक जांच परीक्षा में
धांधली अवश्यम्भावी है.
यानी हजार-पांच सौ के छोटे समूहों में शिक्षकों को बारी-बारी से
बुलाकर ईमानदार अफसरों व पुलिसकर्मियों की कड़ी निगरानी में जांच परीक्षा
होनी चाहिए. जो पास करें, वे शिक्षक बने रहें और जो फेल करें उन्हें
किन्हीं अन्य सरकारी कामों में लगा दिया जाये. जो काॅलेज शिक्षक प्रिंसिपल
शब्द शुद्ध नहीं लिख सकता है, उसके हाथों नयी पीढ़ियों का भविष्य क्यों
सौंपा जाए? पटना हाइकोर्ट के न्यायामूर्ति अजय कुमार त्रिपाठी ने भी हाल
में एक समारोह में कहा कि शैक्षिक मुद्दों को आयरन हैंड से हैंडल करना
होगा. यानी यदि अयोग्य शिक्षकों से छात्रों को मुक्ति दिलाने का कोई कड़ा
प्रयास सरकार करेगी तो अदालत से भी उसे समर्थन मिल सकता है.
सरकारी मकान से मोह : केंद्र सरकार नाजायज तरीके से सरकारी मकानों
में वर्षों से रह रहे प्रभावशाली लोगों को शीघ्र निकाल बाहर करने के लिए
संबंधित नियमों में कारगर बदलाव कर रही है. पहले के नियम के अनुसार मकान
खाली करने के लिए सरकार सात सप्ताह का समय देती थी.
इसे घटाकर अब तीन दिन किया जा रहा है. साथ ही मकान में बने रहने के
लिए कोई निचली अदालत की शरण नहीं ले सकता. जो नेतागण अदालती स्थगन आदेशों
के चलते वर्षों से नयी दिल्ली के सरकारी मकान नहीं छोड़ रहे हैं, उनमें
वीरभद्र सिंह, अम्बिका सोनी और कुमारी शैलजा शामिल हैं. इनके अलावा 70 बड़े
अफसर और कुछ कलाकार भी हैं. दरअसल सरकारी मकानों में बने रहने का लोभ पद्म
पुरस्कारों से भी अधिक है. कुछ दशक पहले एक प्रतिष्ठित पत्रकार ने
पद्मश्री ठुकरा दिया था.
पर जब उन्हें सरकारी मकान छोड़ने को कहा गया तो उस नोटिस के खिलाफ वे
अदालत चले गये थे. बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने तो नब्बे के दशक में
नाजायज तरीके से पटना के सरकारी बंगले में काबिज रहने के लिए वर्षों तक
कानूनी लड़ाई लड़ी थी. पर अंततः शासन ने उन्हें निकाल बाहर किया.
और अंत में : खबर है कि पटना के पांच सफाई निरीक्षक निलंबित कर दिये
गये. इस पर भीषण गंदगी से पीड़ित एक पटनावासी ने पूछा कि क्या पटना में ऐसा
कोई पद भी है? यदि है तो उस पद पर कुछ लोग बैठे हुए भी थे? क्या इन पांच
के अलावा भी ऐसे कुछ और निरीक्षक भी हैं? आखिर वे करते क्या हैं?