बिहार के संस्कृत स्कूलों के शिक्षकों को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली है. मुख्य न्यायधीश टीएस ठाकुर की अगुवाई वाली 7 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि संस्कृत स्कूलों का सरकारीकरण नहीं होगा और केवल अध्यादेश के समय सीमा तक ही वेतनमान मिलेगा यानि स्कूल के शिक्षकों को 1989 से 1992 तक ही वेतनमान मिलेगा.
बिहार के संस्कृत स्कूलों का नहीं होगा सरकारीकरण, सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि बार-बार अध्यादेश लाना असंवैधानिक है और किसी मामले को लेकर राज्य सरकार द्वारा बार-बार अध्यादेश जारी करना संविधान के साथ धोखा करने के समान है. दरअसल, बिहार में संस्कृत स्कूलों को अध्यादेश के जरिए सरकारी दर्जा दिया गया था लेकिन बिहार सरकार ने अध्यादेश खत्म होने के बाद इन स्कूलों को सरकारी मानने और इनके शिक्षकों को सरकारी वेतनमान देने से मना कर दिया था.
मामला हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आया था सुप्रीम कोर्ट में संस्कृत स्कूलों के शिक्षकों और बिहार सरकार की याचिकाएं 22 सालों से लंबित थी. मुद्दा अध्यादेश के समाप्त होने के बाद उस दौरान हुए काम की कानूनी वैद्यता की व्याख्या में फंसा था. आपको बता दें कि मामले की शुरूआत 1989 में हुई जब बिहार सरकार ने चुनाव से पहले अध्यादेश जारी कर राज्य के 429 संस्कृत स्कूलों को टेक ओवर कर लिया यानि उन्हें सरकारी बना दिया.
हालांकि एक शर्त भी थी कि हर स्कूल के सिर्फ सात शिक्षकों को ही सरकारी वेतनमान दिया जाएगा. अध्यादेश खत्म होने पर 1991 और 1992 में इसे पुन: लागू किया गया. 1992 में एक नई शर्त जुड़ी कि संस्कृत स्कूलों की जांच होगी और जो स्कूल ढांचागत संसाधन व अन्य मानकों पर खरे होंगे उन्हें ही सरकारी बनाया जाएगा साथ ही शिक्षकों की जांच होगी.
यह अध्यादेश मार्च 1992 में खत्म हो गया. सरकार ने न तो इसे दोबारा जारी किया और न ही यह इस बीच विधानसभा से पास हो कानून की शक्ल ले पाया. अध्यादेश खत्म होने के बाद जब सरकार ने संस्कृत स्कूलों और उसके शिक्षकों को सरकारी मानने से इन्कार कर दिया तो शिक्षकों ने पटना हाईकोर्ट मे रिट दाखिल की.
शिक्षकों ने सरकारी वेतनमान मांगते हुए कहा कि जब एक बार अध्यादेश से स्कूलों को सरकारी बना दिया गया तो अध्यादेश समाप्त होने के बाद भी उनकी स्थिति नहीं बदलेगी. वे सरकारी ही रहेंगे जबकि बिहार सरकार की दलील थी कि अध्यादेश खत्म होने के बाद स्कूलों का सरकारी दर्जा भी समाप्त हो गया है.
हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि अध्यादेश खत्म होने के बाद उससे किया गया स्कूलों का टेक ओवर भी खत्म हो गया और स्कूलों की पूर्व स्थिति बहाल हो जाएगी. चूंकि कोई कानून नहीं रहा इसलिए अब उनकी स्थिति सरकारी नहीं रही। हालांकि हाईकोर्ट ने कहा कि 1989 से लेकर 1992 तक अध्यादेश लागू रहा तब तक ये स्कूल सरकारी थे इसलिए इनके सात सात शिक्षकों को उस दौरान का सरकारी वेतनमान दिया जाये.
इसके बाद ये वापस सहायता प्राप्त निजी स्कूल हो गये हैं इसलिए इसके बाद इनके शिक्षकों को पुराना वेतनमान मिलेगा. हाईकोर्ट के इस आदेश को शिक्षकों और बिहार सरकार दोनों ने सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी है. सुप्रीमकोर्ट में कानून का मुख्य मुद्दा यह फंसा कि क्या जो स्कूल अध्यादेश के जरिये सरकारी बनाए गये थे उनका सरकारी दर्जा समाप्त करने के लिए अलग से किसी अधिसूचना की जरूरत होगी कि नहीं.
सरकार का कहना है कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि स्कूलों के अधिग्रहण के लिए अलग से कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई थी बल्कि अध्यादेश में ही सीधे 429 संस्कृत स्कूलों को अधिग्रहित करने की बात थी ऐसे में अध्यादेश समाप्त होने के बाद वो स्थिति भी समाप्त हो गई थी.
बिहार के संस्कृत स्कूलों का नहीं होगा सरकारीकरण, सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि बार-बार अध्यादेश लाना असंवैधानिक है और किसी मामले को लेकर राज्य सरकार द्वारा बार-बार अध्यादेश जारी करना संविधान के साथ धोखा करने के समान है. दरअसल, बिहार में संस्कृत स्कूलों को अध्यादेश के जरिए सरकारी दर्जा दिया गया था लेकिन बिहार सरकार ने अध्यादेश खत्म होने के बाद इन स्कूलों को सरकारी मानने और इनके शिक्षकों को सरकारी वेतनमान देने से मना कर दिया था.
मामला हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आया था सुप्रीम कोर्ट में संस्कृत स्कूलों के शिक्षकों और बिहार सरकार की याचिकाएं 22 सालों से लंबित थी. मुद्दा अध्यादेश के समाप्त होने के बाद उस दौरान हुए काम की कानूनी वैद्यता की व्याख्या में फंसा था. आपको बता दें कि मामले की शुरूआत 1989 में हुई जब बिहार सरकार ने चुनाव से पहले अध्यादेश जारी कर राज्य के 429 संस्कृत स्कूलों को टेक ओवर कर लिया यानि उन्हें सरकारी बना दिया.
हालांकि एक शर्त भी थी कि हर स्कूल के सिर्फ सात शिक्षकों को ही सरकारी वेतनमान दिया जाएगा. अध्यादेश खत्म होने पर 1991 और 1992 में इसे पुन: लागू किया गया. 1992 में एक नई शर्त जुड़ी कि संस्कृत स्कूलों की जांच होगी और जो स्कूल ढांचागत संसाधन व अन्य मानकों पर खरे होंगे उन्हें ही सरकारी बनाया जाएगा साथ ही शिक्षकों की जांच होगी.
यह अध्यादेश मार्च 1992 में खत्म हो गया. सरकार ने न तो इसे दोबारा जारी किया और न ही यह इस बीच विधानसभा से पास हो कानून की शक्ल ले पाया. अध्यादेश खत्म होने के बाद जब सरकार ने संस्कृत स्कूलों और उसके शिक्षकों को सरकारी मानने से इन्कार कर दिया तो शिक्षकों ने पटना हाईकोर्ट मे रिट दाखिल की.
शिक्षकों ने सरकारी वेतनमान मांगते हुए कहा कि जब एक बार अध्यादेश से स्कूलों को सरकारी बना दिया गया तो अध्यादेश समाप्त होने के बाद भी उनकी स्थिति नहीं बदलेगी. वे सरकारी ही रहेंगे जबकि बिहार सरकार की दलील थी कि अध्यादेश खत्म होने के बाद स्कूलों का सरकारी दर्जा भी समाप्त हो गया है.
हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि अध्यादेश खत्म होने के बाद उससे किया गया स्कूलों का टेक ओवर भी खत्म हो गया और स्कूलों की पूर्व स्थिति बहाल हो जाएगी. चूंकि कोई कानून नहीं रहा इसलिए अब उनकी स्थिति सरकारी नहीं रही। हालांकि हाईकोर्ट ने कहा कि 1989 से लेकर 1992 तक अध्यादेश लागू रहा तब तक ये स्कूल सरकारी थे इसलिए इनके सात सात शिक्षकों को उस दौरान का सरकारी वेतनमान दिया जाये.
इसके बाद ये वापस सहायता प्राप्त निजी स्कूल हो गये हैं इसलिए इसके बाद इनके शिक्षकों को पुराना वेतनमान मिलेगा. हाईकोर्ट के इस आदेश को शिक्षकों और बिहार सरकार दोनों ने सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी है. सुप्रीमकोर्ट में कानून का मुख्य मुद्दा यह फंसा कि क्या जो स्कूल अध्यादेश के जरिये सरकारी बनाए गये थे उनका सरकारी दर्जा समाप्त करने के लिए अलग से किसी अधिसूचना की जरूरत होगी कि नहीं.
सरकार का कहना है कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि स्कूलों के अधिग्रहण के लिए अलग से कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई थी बल्कि अध्यादेश में ही सीधे 429 संस्कृत स्कूलों को अधिग्रहित करने की बात थी ऐसे में अध्यादेश समाप्त होने के बाद वो स्थिति भी समाप्त हो गई थी.