एक समय था, जब बिहार को ज्ञान की भूमि का दर्जा हासिल था। वजह थी कि बिहार के बोध गया में ही गौतम को सूक्ष्म ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे महात्मा बुद्ध बने। यदि इस ऐतिहासिक उद्धरण को छोड़ भी दें, तो शिक्षा के मामले में बिहार पूरे देश में पृथक रहा है।
दरअसल, इसका प्रमाण हर साल आईआईटी और यूपीएससी परीक्षाओं में बिहारी परीक्षार्थियों की निरंतर शानदार सफलता है। लेकिन इसके समानांतर एक असलियत यह भी कि सरकारी शिक्षा के क्षेत्र असमानता का जो दृश्य बिहार में दिखता है, वह किसी और राज्य में शायद ही दिखता है। इसकी शुरूआत का श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र को जाता है, जिन्होंने वित्त रहित शिक्षा नीति का अविष्कार किया।
परिणाम यह हुआ कि बड़े पैमाने पर ऐसे शिक्षण संस्थान खोले गए, जिनका कोई आधार नहीं था। आधारभूत संरचना एवं शिक्षकों की कमी से जझते बिहार की शिक्षा व्यवस्था के पास कोई विकल्प नहीं था। पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भी अपने कार्यकाल के दौरान वित्त रहित शिक्षा नीति को कायम रखा। इसके दुष्परिणाम अटल सत्य के रूप में सामने आए।
लालू प्रसाद के बाद सत्ता में आए नीतीश कुमार ने वित्त रहित शिक्षा नीति को नया आयाम दिया। उन्होंने वित्त रहित शिक्षण संस्थाओं को वित्त संपोषित करने का फॉर्मूला खोज निकाला। तय यह किया गया कि जो वित्त रहित संस्थाएं जितना अच्छा परिणाम देंगी, उन्हें उतनी सरकारी सहायता मिलेगी। साथ ही उन्होंने यह सुविधा कुकुरमुत्ते के तर्ज पर खोली गईं, निजी शिक्षण संस्थानों को भी दे दी।
यकीनन इसके बाद तो जैसे राज्य में होड़ सी लग गई। वर्ष 2007 के बाद बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के विभिन्न परीक्षाओं के परिणाम देखें, तो यह बात आसानी से समझा जा सकता है कि किस तरह से निजी संस्थानों ने मनमानी की। जबकि सरकारी स्कूलों एवं कालेजों का प्रदर्शन लगातार गिरता चला गया।
इधर, राज्य सरकार ने भी इसका जमकर राजनीतिक उपयोग किया। मसलन सूबे में नारी सशक्तिकरण के दावे को साबित करने के लिए परीक्षाओं में लड़कियों को प्राथमिकता के आधार पर प्रोजेक्ट किया जाने लगा। जब सवाल उठे तब जाकर राज्य सरकार सचेत हुई। लेकिन उसकी यह सचेतना पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव के मद्देनजर समाप्त हो गई।
खैर, इस पूरे मामले में तथाकथित स्वायत्त संस्थान बिहार विद्यालय परीक्षा समिति की भूमिका पहली बार कटघरे में तब आई, जब समिति पर निजी कॉलेजों को मान्यता दिए जाने की जिम्मेवारी सौंपी गई। इसके अलावा समिति के अध्यक्ष पद को लेकर भी जमकर राजनीति की गई। मसलन इसके अध्यक्ष पद को बौद्धिक के बजाय राजनीतिक बना दी गई। एक जीता जागता प्रमाण यह कि बोर्ड दो लगातार पूर्व अध्यक्ष क्रमशः प्रो. राजमणि प्रसाद और प्रो लालकेश्वर प्रसाद सिंह दोनों जाति के कुर्मी हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा के वासी हैं।
वैसे श्री कुमार की स्वजातीयता और जिलावाद का यह कोई एकमात्र उदाहरण नहीं है। प्रो. लालकेश्वर प्रसाद सिंह के मामले में तो यह उसी वक्त साफ हो गया था, जब उन्हें बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। तब उनकी पत्नी प्रो. उषा सिन्हा नालंदा के हिलसा से जदयू की विधायक थीं।
बहरहाल, इस वर्ष इंटर परीक्षाओं साइंस एवं ऑर्ट्स के टॉपर घोटाले ने बोर्ड में वर्षों से चली आ रहे भ्रष्टाचार की पोल खोल दी। मीडिया की सक्रियता के कारण सारा सच सामने आया। सरकार ने भी आनन-फानन में एसआईटी का गठन कर मामले की जांच शुरू कर दी। हालांकि जांच के दौरान भी राजनीतिक खेल खेला गया।
खासकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस पूरे मामले में बच्चा राय के बहाने राजद प्रमुख लालू प्रसाद पर निशाना साधा। लेकिन जैसे ही जवाब में राजद ने गिरिराज सिंह और बच्चा राय की तस्वीर को साझा किया, भाजपा पीछे हट गई। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने यह साबित कर दिया कि अमित कुमार उर्फ बच्चा राय की पैठ सभी दलों के नेताओं के पास है।
बहरहाल, इस पूरे मामले में अब दो पक्ष हैं। धवल पक्ष यह कि घोटाले के सारे अभियुक्त जेल में हैं और सूबे के तेज-तर्रार आईएएस अधिकारी आनंद किशोर के नेतृत्व में सरकार ऑपरेशन क्लीन अभियान चला रही है। दूसरा नकारात्मक पहलू यह है कि ऑर्ट्स टॉपर रूबी राय और साइंस टापर सौरव श्रेष्ठ को जेल भेज दिया गया। यहां किशोर न्याय प्रणाली के अस्तित्व पर भी सवाल उठता है। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल बिहार की शिक्षा व्यवस्था का है, जो सरकारी कार्यप्रणाली व राजनीति के कारण रसातल में जा पहुंचा है।
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दरअसल, इसका प्रमाण हर साल आईआईटी और यूपीएससी परीक्षाओं में बिहारी परीक्षार्थियों की निरंतर शानदार सफलता है। लेकिन इसके समानांतर एक असलियत यह भी कि सरकारी शिक्षा के क्षेत्र असमानता का जो दृश्य बिहार में दिखता है, वह किसी और राज्य में शायद ही दिखता है। इसकी शुरूआत का श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र को जाता है, जिन्होंने वित्त रहित शिक्षा नीति का अविष्कार किया।
परिणाम यह हुआ कि बड़े पैमाने पर ऐसे शिक्षण संस्थान खोले गए, जिनका कोई आधार नहीं था। आधारभूत संरचना एवं शिक्षकों की कमी से जझते बिहार की शिक्षा व्यवस्था के पास कोई विकल्प नहीं था। पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भी अपने कार्यकाल के दौरान वित्त रहित शिक्षा नीति को कायम रखा। इसके दुष्परिणाम अटल सत्य के रूप में सामने आए।
लालू प्रसाद के बाद सत्ता में आए नीतीश कुमार ने वित्त रहित शिक्षा नीति को नया आयाम दिया। उन्होंने वित्त रहित शिक्षण संस्थाओं को वित्त संपोषित करने का फॉर्मूला खोज निकाला। तय यह किया गया कि जो वित्त रहित संस्थाएं जितना अच्छा परिणाम देंगी, उन्हें उतनी सरकारी सहायता मिलेगी। साथ ही उन्होंने यह सुविधा कुकुरमुत्ते के तर्ज पर खोली गईं, निजी शिक्षण संस्थानों को भी दे दी।
यकीनन इसके बाद तो जैसे राज्य में होड़ सी लग गई। वर्ष 2007 के बाद बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के विभिन्न परीक्षाओं के परिणाम देखें, तो यह बात आसानी से समझा जा सकता है कि किस तरह से निजी संस्थानों ने मनमानी की। जबकि सरकारी स्कूलों एवं कालेजों का प्रदर्शन लगातार गिरता चला गया।
इधर, राज्य सरकार ने भी इसका जमकर राजनीतिक उपयोग किया। मसलन सूबे में नारी सशक्तिकरण के दावे को साबित करने के लिए परीक्षाओं में लड़कियों को प्राथमिकता के आधार पर प्रोजेक्ट किया जाने लगा। जब सवाल उठे तब जाकर राज्य सरकार सचेत हुई। लेकिन उसकी यह सचेतना पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव के मद्देनजर समाप्त हो गई।
खैर, इस पूरे मामले में तथाकथित स्वायत्त संस्थान बिहार विद्यालय परीक्षा समिति की भूमिका पहली बार कटघरे में तब आई, जब समिति पर निजी कॉलेजों को मान्यता दिए जाने की जिम्मेवारी सौंपी गई। इसके अलावा समिति के अध्यक्ष पद को लेकर भी जमकर राजनीति की गई। मसलन इसके अध्यक्ष पद को बौद्धिक के बजाय राजनीतिक बना दी गई। एक जीता जागता प्रमाण यह कि बोर्ड दो लगातार पूर्व अध्यक्ष क्रमशः प्रो. राजमणि प्रसाद और प्रो लालकेश्वर प्रसाद सिंह दोनों जाति के कुर्मी हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा के वासी हैं।
वैसे श्री कुमार की स्वजातीयता और जिलावाद का यह कोई एकमात्र उदाहरण नहीं है। प्रो. लालकेश्वर प्रसाद सिंह के मामले में तो यह उसी वक्त साफ हो गया था, जब उन्हें बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। तब उनकी पत्नी प्रो. उषा सिन्हा नालंदा के हिलसा से जदयू की विधायक थीं।
बहरहाल, इस वर्ष इंटर परीक्षाओं साइंस एवं ऑर्ट्स के टॉपर घोटाले ने बोर्ड में वर्षों से चली आ रहे भ्रष्टाचार की पोल खोल दी। मीडिया की सक्रियता के कारण सारा सच सामने आया। सरकार ने भी आनन-फानन में एसआईटी का गठन कर मामले की जांच शुरू कर दी। हालांकि जांच के दौरान भी राजनीतिक खेल खेला गया।
खासकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस पूरे मामले में बच्चा राय के बहाने राजद प्रमुख लालू प्रसाद पर निशाना साधा। लेकिन जैसे ही जवाब में राजद ने गिरिराज सिंह और बच्चा राय की तस्वीर को साझा किया, भाजपा पीछे हट गई। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने यह साबित कर दिया कि अमित कुमार उर्फ बच्चा राय की पैठ सभी दलों के नेताओं के पास है।
बहरहाल, इस पूरे मामले में अब दो पक्ष हैं। धवल पक्ष यह कि घोटाले के सारे अभियुक्त जेल में हैं और सूबे के तेज-तर्रार आईएएस अधिकारी आनंद किशोर के नेतृत्व में सरकार ऑपरेशन क्लीन अभियान चला रही है। दूसरा नकारात्मक पहलू यह है कि ऑर्ट्स टॉपर रूबी राय और साइंस टापर सौरव श्रेष्ठ को जेल भेज दिया गया। यहां किशोर न्याय प्रणाली के अस्तित्व पर भी सवाल उठता है। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल बिहार की शिक्षा व्यवस्था का है, जो सरकारी कार्यप्रणाली व राजनीति के कारण रसातल में जा पहुंचा है।
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