आइएएस की गिरफ्तारी यानी सरसों में ही लगा है भूत

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक
 मध्य पटना के संतोषा अपार्टमेंट में अवैध निर्माण कानून के शासन की विफलता का प्रतीक था. अब अदालती आदेश से उस अपार्टमेंट के अवैध हिस्से को तोड़ने का सरकारी निर्णय कानून के शासन की पुनर्स्थापना का नमूना है. ऐसे सरकारी कदमों से नियम पसंद और कानून प्रिय लोगों का शासन के प्रति विश्वास बढ़ता है. 
 याद रहे कि वर्षों पहले अतिक्रमण हटाने के लिए जारी सुप्रीम कोर्ट आदेश को ठेंगा दिखाते हुए राज्य शासन ने दीघा स्थित आवास बोर्ड की जमीन पर लगातार अतिक्रमण होने दिया. ऐसे कई अन्य उदाहरण भी हैं. संतोषा पर कार्रवाई राज्य सरकार के बदले हुए रुख को नतीजा लगता है. 
 
पिछले तीन दिनों में बिहार सरकार ने तीन प्रमुख उपलब्धियां हासिल की हैं
 
रिश्वतखोरी के आरोप में आइएएस अफसर डॉ जितेंद्र गुप्त की गिरफ्तारी हुई. इससे भ्रष्ट अफसरों को कड़ा संदेश जायेगा. नशाबंदी कानून तोड़ने के आरोप में जदयू के पूर्व विधायक ललन राम की गिरफ्तारी से उन सत्ताधारी नेताओं को भी सबक मिल सकता है कि जिन्हें कानून को अपनी जेब में रखने की आदत है. बिहार के गन्ना उद्योग मंत्री फिरोज अहमद के दामाद से रिश्वत लेने वाले उनके ही विभाग के बीज प्रमाणन निरीक्षक राकेश लोचन को बरखास्त कर दिया गया है. इससे भी कुछ सीख मिल सकती है. डॉ. जितेंद्र गुप्त पर रिश्वतखोरी का आरोप लगने से यह स्पष्ट हो गया है कि सरसों में ही भूत लग गया है. 
 
कभी आइसीएस-आइएएस अफसरों को देश के शासन का स्टील फ्रेम कहा जाता था. कई बार शासकीय भ्रष्टाचार का भूत आइएएस नामक सरसों से भगाया जाता था. पर लगता है कि सरसों में ही जबर्दस्त भूत लग गया है. डॉ गुप्त पर उनकी सेवा के प्रारंभिक अवधि में ही ऐसा बड़ा आरोप? आश्चर्य होता है. उम्मीद है कि राज्य सरकार हर क्षेत्र के सरसों में लगे भूतों को भगाने का काम इसी उत्साह से जारी रखेगी.
 
भ्रष्टाचार का पौधा धीरे-धीरे बना वटवृक्ष
 
आजादी के कुछ ही वर्षों बाद एक विदेशी शोधकर्ता ने आजाद भारत में भ्रष्टाचार के प्रसार के कारणों पर रिसर्च किया था. उसने उत्तर प्रदेश के एक बड़े भूभाग को अपने शोध का आधार बनाया था. 
 
लखनऊ से लेकर गांव तक के सैकड़ों लोगों से उसने बातचीत की थी. उसके शोध का मोटा मोटी निष्कर्ष यही था कि सरकारी भ्रष्टाचार को राज्य स्तर के सत्ताधारी नेताओं ने ही अपने स्वार्थवश ऊपर से नीचे तक फैलाया. यह बात लगभग पूरे देश पर लागू होती है. साठ के दशक में जो बीजारोपण हुआ था,वह अब वटवृक्ष बन चुका है. इसलिए आइएएस अफसर के पहली पोस्टिंग के दौरान ही आरोप लगने शुरू हो गये हैं. जब भ्रष्टाचार ऊपर से ही नीचे तक आया है तो वह समाप्त भी होगा तभी जब उसका प्रयास ऊपर से हो. क्या इस देश में ऐसा कभी हो सकेगा?
 
भ्रष्टाचार यात्रा के कई पड़ाव
 
1948 के जीप घोटाले के दोषी के खिलाफ जब कार्रवाई नहीं हुई तो भ्रष्ट लोगों का मनोबल बढ़ा. साठ के दशक में बीजू पटनायक ने कहा था कि यदि मेरे पास चार करोड़ रुपए हों तो मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूं. यानी तब राजनीति की वैसी स्थिति बन रही थी. सन 1977 में तो बिहार सरकार के एक मंत्री ने विधान सभा में कहा कि मेरे सैलरी बिल पास करने के एवज में कोषागार में घूस देना पड़ा. आज के भ्रष्टाचारों को तो सब अपनी आंखों से देख ही रहे हैं. 
 
लगता है कि इस देश में कोई ईमानदार प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी इसे बंद नहीं करा सकता. बेईमान पीएम-सीएम के कार्यकाल में तो घूसखोर वैसे ही सक्रिय रहते हैं जिस तरह जल में मछली. चाणक्य ने कहा था कि 'यह जानना कठिन है कि मछली खुद कैसे और कितना पानी पी जाती है. वही हाल सरकारी पदाधिकारियों का है. 'पर करीब 23 सौ साल बाद तो सरकारी बाबुओं की पीने की क्षमता कई गुणा बढ़ चुकी है. उनका बस चले तो तालाब कौन कहे पूरी नदी का पानी भी गटक जाएं.
 
रिश्वतखोर बाबू से पहली मुलाकात
 
रिश्वतखोरी में संकोच करने वाले एक बाबू से 1965 में मेरी मुलाकात हुई थी. तब मुझे माइग्रेशन सर्टिफिकेट के लिए छपरा से गया जाना पड़ा था. मगध विश्वविद्यालय कहता था कि माइग्रेशन डाक से जा चुका है. पर मुझे मिला नहीं. मैं बोध गया पहुंचा तो विश्वविद्यालय के एक बाबू ने मुझसे सीधे रिश्वत नहीं मांगी. तब खुलेआम घूस मांगने का जमाना भी नहीं था. 
 
मुझसे बाबू ने कहा कि आप गया कोर्ट से यह ऑफिडेविट कराकर लाइए कि आपका माइग्रेशन सर्टिफिकेट खो गया है. तभी हम डुप्लीकेट देंगे. मैं बोध गया से बस पर सवार होकर गया कोर्ट गया. ऑफिडेविट कराया. विश्वविद्यालय लौटा. बाबू ने पूछा कि कितने पैसे लगे? मैंने कहा कि 13 रुपए. उसने कहा कि परेशानी हुई सो अलग. मुझे ही आप पांच रुपये ही दे दिये होते तो गया तो नहीं जाना पड़ता! तब तक मैं नहीं जानता था कि किसी काम के लिए ऊपर से भी कुछ देना पड़ता है. जिस तरह बेचारे बिहार के गन्ना उद्योग मंत्री शायद नहीं जानते थे कि किसी मंत्री के दामाद को रिश्वत से छूट नहीं है.
 
एक सुखद अनुभव यह भी
 
1964 की बात है. मेरे लोन स्कॉलरशिप का पैसा मेरे कॉलेज में पहुंचने में देर हो रही थी. मैं पटना सचिवालय के शिक्षा विभाग के एक उप निदेशक के पास जा पहुंचा. तब सचिवालय प्रवेश में कहीं रोकटोक नहीं थी, जबकि मेरे कंधे पर एयरबैग भी था. मैंने ऑफिसर से अपनी बात कही. स्नेहिल व्यवहार वाले उस अफसर ने मेरे सामने ही किरानी को बुलाया.
 
पता किया. देरी वहीं से थी. उप निदेशक ने कहा 'बेटा, जाओ, तीन-चार दिनों में पैसा तुम्हारे कॉलेज में पहुंचा जायेगा.' पहुंच भी गया. किसी सरकारी ऑफिसर से उसके दफ्तर में मेरी वह पहली मुलाकात थी. तब मैंने समझा था कि शायद सरकारी ऑफिस का माहौल भी घर जैसा ही होता है. पर, समय के साथ सब कुछ बदलता चला गया. अपवादों को छोड़ दें तो आज यदि किसी ऑफिसर से कोई आम आदमी या रिटायर सरकारी कर्मचारी भी अपनी समस्या लेकर मिलता है तो उसे आदेश दिया जाता है कि आप पहले किरानी बाबू से मिलें. वहां जाने पर क्या होता है, जग जाहिर है. रिश्वत लेने का लहजा कई बार रंगदार वाला भी होता है. 
 
सन् 67 का वह चमत्कार !
 
सन् 1967 में पहली बार बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री थे. उस सरकार में जनसंघ और सीपीआइ के नेतागण भी मंत्री थे. 
 
मंत्रियों में एक से एक ईमानदार और जनसेवी थे. उनमें अनेक अपने जीवन के अंत तक वैसे ही रह गए. सन 67 में उनको सत्ता में देखकर रिश्वतखोर अफसर-कर्मचारी पूरी तरह सहम गए थे. सरकार के पहले छह महीने तक सरकारी दफ्तरों में रिश्वतखोरी बंद हो गयी थी. पर जब महामाया सरकार के भी कुछ मंत्रियों ने जब लालच दिखाना शुरू किया तो बाबू भी एक बार फिर ढीठ हो गए थे.
और अंत में
 

कुख्यात मुकेश पाठक ने जिन दो नेताओं को अपना संरक्षक बताया है, क्या उनके नामों का खुलासा होगा? यदि संरक्षण देने का यह आरोप सच है तो क्या राजनीतिक दल ऐसे नेताओं का सामाजिक-राजनीतिक बहिष्कार करेंगे? यदि नहीं करेंगे तो यह माना जाएगा कि कानून-व्यवस्था को लेकर उनकी चिंता पूरी तरह नकली है.
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