टीचर गणित पढ़ाती हैं, हिंदी समझ जाते हैं

‘‘दूसरे बच्चे संज्ञा-सर्वनाम बोल-बोल कर याद करते हैं तो हम गणित बनाने में डिस्टर्ब हो जाते हैं.’’
‘‘हमारी मिस गणित समझाती हैं तो उधर के मिस से हम लोग हिंदी समझ जाते हैं.’’

ये परेशानियां पांचवी की छात्रा नेहा कुमारी और अंशु कुमार की हैं. लेकिन ये परेशानी सिर्फ़ इन दोनों की नहीं है.
बिहार के गोपालगंज शहर के वार्ड नंबर 10 स्थित राजकीय प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले तीसरी से पांचवीं तक के करीब सौ छात्र ऐसी ही समस्या से रुबरु हैं.
दरअसल सूबे के दूसरे हज़ारों स्कूल की तरह इस स्कूल में भी एक ही कमरे में एक से अधिक क्लास की पढ़ाई होती है.
लेकिन यह स्कूल इस मायने में शायद सबसे अलग है कि यहां के शिक्षक एक ही ब्लैक बोर्ड को तीन हिस्सों में बांट कर एक साथ पढ़ाते हैं.
इस इंतजाम से स्कूल के शिक्षक भी कम परेशान नहीं हैं. यहां की एक टीचर मनीषा कुमारी बताती हैं, ‘‘ब्लैक-बोर्ड बांट कर पढ़ाने से मुझे उसका काफी पतला हिस्सा मिल पाता है. मैं जितना लिख कर पढ़ाना चाहती हूं वो एक बार लिख नहीं पाती. ऐसे में थोड़ा-थोड़ा लिख कर उसे साफ़ करती हूं और फिर आगे लिखती हूं.’’
गोपालगंज के इस स्कूल में पांचवी तक की पढ़ाई होती है लेकिन कमरे मात्र दो ही हैं. उसमें भी एक कमरे में आंगनबाड़ी चलता है.
ऐसे में पहली और दूसरी के बच्चे बरामदे में पढ़ते हैं जबकि तीसरी से पांचवीं तक के बच्चे एक मात्र बचे कमरे में एक साथ पढ़ते हैं. जिस कमरे में ये बच्चे पढ़ते हैं उसी में स्कूल का ऑफिस भी है और गोदाम भी.
गोपालगंज के इस स्कूल की तरह ही पटना ज़िले के भेलवाड़ा गांव के राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय में भी आठवीं तक की पढ़ाई के लिए मात्र चार कमरे ही उपलब्ध हैं. लेकिन यहां के शिक्षकों ने गोपालगंज के शिक्षकों से थोड़ा अलग रास्ता निकाला है.
इस स्कूल के एक कमरे में दो शिक्षक पहली से चौथी तक के बच्चों को पढ़ाते हैं. वे एक ही कमरे में तीन अलग-अलग ब्लैक बोर्ड का इस्तेमाल कर बच्चों को पढ़ाते हैं.
आंकड़ों की बात करें तो अभी भी राज्य के करीब 54 हज़ार स्कूल ऐसे हैं जिनमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कमरा उपलब्ध नहीं है. वहीं करीब 1,400 से ज़्यादा स्कूल केवल एक कमरे में चलते हैं जबकि करीब सात हजार स्कूलों के पास इमारत ही नहीं है.
बुनियादी सुविधाओं का यह हाल तब है जब बीते दस वर्षों में इस मोर्चे पर ऊंची छलांग लगाने का दावा सरकार करती है. सरकारी आंकड़े के मुताबिक 2005-06 में जहां सरकारी स्कूलों में करीब डेढ़ लाख कमरे थे वहीं 2014-15 में यह संख्या बढ़कर साढ़े तीन लाख से अधिक हो गई है.
ऐसा नहीं है कि बुनियादी सुविधाओं का अभाव केवल कई कक्षाओं के छात्रों को एक कमरे में बैठकर पढ़ने को मजबूर कर रहा है.
परेशानियां दूसरी भी हैं. कहीं एक ही भवन में एक से अधिक स्कूल चल रहे हैं तो कुछ स्कूलों में ‘ऑड-ईवन फॉर्मूले’ की तर्ज पर पढ़ाई होती है.
इस साल के शुरु में स्थानीय मीडिया में ऐसी खबरें आई थीं कि सारण, समस्तीपुर और मधेपुरा ज़िले के कुछ स्कूलों में ‘ऑड-ईवन फॉर्मूले’ की तर्ज पर पढ़ाई हो रही है. यानी की इन स्कूलों में कमरों की कमी के कारण एक दिन छात्र तो दूसरे दिन छात्राएं पढ़ने जाती थीं.
बिहार शिक्षा परियोजना के राज्य परियोजना निदेशक संजय कुमार सिंह के मुताबिक प्रदेश में बुनियादी सुविधाओं का मामला अब बहुत ही छोटा मुद्दा रह गया है.
स्कूलों में कमरों की कमी दूर करने के संबंध में वे बताते हैं, ‘‘इस चुनौती का एक उपाय यह निकाला गया है कि जहां जमीन की कमी के कारण नए कमरे बनाना मुमकिन नहीं है वैसे स्कूलों को बहुमंजिली भवन में तब्दील कर इस कमी को दूर किया जाएगा.’’
शिक्षा अधिकार आंदोलन का एक लोकप्रिय नारा रहा है, ‘‘जितने कक्षा उतने कक्ष, सभी में हों शिक्षक दक्ष.”
शिक्षक नेता और विधान पार्षद केदार नाथ पांडेय बीते कुछ दशकों से बिहार में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बहाली के लिए मोर्चा ले रहे हैं.
उनका मानना है कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव के लिए शिक्षा में दीर्घकालिक निवेश की जरुरत होती है. उनके मुताबिक सरकारों का इस दिशा में दृढ़ संकल्प नहीं रहा है.
केदार नाथ कहते हैं, ‘‘बिहार में स्कूल के बुनियादी सुविधाओं के लिए हाल के वर्षों में कुछ काम हुआ है लेकिन उसकी रफ्तार बहुत धीमी है. इस रफ्तार से आने वाले बीस साल इन बुनियादी सुविधाओं संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने में लग जाएंगे.’’
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